Bhagavad Gita Chapter 11 Verse 21 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति | स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घाः स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ||११-२१||
Transliteration
amī hi tvāṃ surasaṅghā viśanti kecidbhītāḥ prāñjalayo gṛṇanti . svastītyuktvā maharṣisiddhasaṅghāḥ stuvanti tvāṃ stutibhiḥ puṣkalābhiḥ ||11-21||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
11.21 Verily, into Thee enter these hosts of gods; some extol Thee in fear with joined palms; saying 'may it be well', bands of great sages and perfected ones praise Thee with hymns complete.
।।11.21।। ये समस्त देवताओं के समूह आप में ही प्रवेश कर रहे हैं और कई एक भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आप की स्तुति करते हैं; महर्षि और सिद्धों के समुदाय 'कल्याण होवे' (स्वस्तिवाचन करते हुए) ऐसा कहकर, उत्तम (या सम्पूर्ण) स्रोतों द्वारा आपकी स्तुति करते हैं।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Approaching professional endeavors with a sense of humility and reverence for the larger purpose. Recognize that individual efforts, like the 'hosts of gods' entering the Divine, contribute to a greater organizational or societal whole. When facing overwhelming challenges or intense competition, surrendering ego-driven control and focusing on dedicated effort within the broader system can alleviate pressure and foster better outcomes.
🧘 For Stress & Anxiety
When overwhelmed by stress or anxiety, remember that one is part of a vast, interconnected cosmic order. Surrender the need for absolute control and the burden of individual struggle to a higher power or the natural flow of life. Cultivating a sense of awe and humility, recognizing that personal challenges are often part of a grander, unfolding process, can bring profound mental peace and alleviate the fear of the unknown.
❤️ In Relationships
Approach relationships with reverence and humility, acknowledging the inherent worth and interconnectedness of all individuals. Practice 'surrender' of ego and personal desires in conflicts, striving for mutual well-being ('may it be well') rather than personal victory. This fosters deeper understanding, respect, and harmony, recognizing that each person, like the various entities praising the Divine, plays a vital role in the shared tapestry of life.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“All beings, from the highest gods to the most perfected sages, ultimately exist within and offer profound reverence to the one supreme, all-encompassing Divine reality, whether in fear or deep understanding.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
11.21 अमी these? हि verily? त्वाम् Thee? सुरसङ्घाः hosts of gods? विशन्ति enter? केचित् some? भीताः in fear? प्राञ्जलयः with joined palms? गृणन्ति extol? स्वस्ति may it be well? इति thus? उक्त्वा having said? महर्षिसिद्धसङ्घाः bands of great Rishis and Siddhas? स्तुवन्ति paise? त्वाम् Thee? स्तुतिभिः with hymns? पुष्कलाभिः complete.Commentary Pushkalabhih means complete or wellworded praises or praises full of deep meanings.Great sages like Narada and perfected ones like Kapila praise Thee with inspiring hymns.
Shri Purohit Swami
11.21 The troops of celestial beings enter into Thee, some invoking Thee in fear, with folded palms; the Great Seers and Adepts sing hymns to Thy Glory, saying All Hail.'
Dr. S. Sankaranarayan
11.21. These hosts of gods enter into You; some frightened ones recite [hymns] with folded palms; simply crying 'Hail !', the hosts of great seers praise You with the excellent praising hymns.
Swami Adidevananda
11.21 Verily into You the hosts of Devas enter. Some in fear extol You with clasped hands. Crying 'Hail' the bands of great seers and Siddhas praise You with meaningful hymns.
Swami Gambirananda
11.21 Those very groups of gods enter into You; struck with fear, some extol (You) with joined palms. Groups of great sages and perfected beings praise You with elaborate hymns,saying 'May it be well!'
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।11.21।। अब तक अर्जुन ने विश्व रूप का जो वर्णन किया वह स्थिर था और एक साथ अद्भुत और उग्र भी था। यहाँ अर्जुन विश्वरूप में दिखाई दे रही गति और क्रिया का वर्णन करता है। ये सुरसंघ विराट् पुरुष में प्रवेश करके तिरोभूत हो रहे हैं।यदि सुधार के अयोग्य हुए कई लोग बलात् विश्वरूप की ओर खिंचे चले जाकर उसमें लुप्त हो जा रहे हों? और अन्य लोग प्रतीक्षा करते हुऐ इस प्रक्रिया को देख रहे हों? तो अवश्य ही वे भय से आतंकित हो जायेंगे। किसी निश्चित आपत्ति से आशंकित पुरुष? जब सुरक्षा का कोई उपाय नहीं देखता है? तब निराशा के उन क्षणों में वह सदा प्रार्थना की ओर प्रवृत्त होता है। इस मनोवैज्ञानिक सत्य को बड़ी ही सुन्दरता से यहाँ इन शब्दों में व्यक्त किया गया है कि कई एक भयभीत होकर हाथ जोड़कर आपकी स्तुति करते हैं।और यही सब कुछ नहीं है। महर्षियों और सिद्ध पुरुषों ऋ़े समूह? अपने ज्ञान की परिपक्वता से प्राप्त दैवी और आन्तरिक शान्ति के कारण? इस विराट् के दर्शन से अविचलित रहकर इस विविध रूपमय विराट् पुरुष का उत्तम (बहुल) स्तोत्रों के द्वारा स्तुतिगान करते हैं। वे सदा स्वस्तिवाचन अर्थात् सब के कल्याण की कामना करते हैं। अपने पूर्ण ज्ञान के कारण वे जानते हैं कि ईश्वर इस प्रकार का अति उग्र भयंकर रूप केवल उसी समय धारण करता है जब वह विश्व का सम्पूर्ण पुनर्निर्माण करना चाहता है। सिद्ध पुरुष यह भी जानते हैं कि विनाश के द्वारा निर्माण करने की इस योजना में किसी प्रकार की हानि नहीं होती है। इसलिए? वे इस विनाश की प्रक्रिया का स्वागत करते हुये जगत के लिये स्वर्णयुग की कामना करते हैं? जो इस सम्पूर्ण विनाश के पश्चात् निश्चय ही आयेगा।इस श्लोक में जगत् के प्राणियों का वर्गीकरण तीन भागों में किया गया है उत्तम? मध्यम और अधम। अधम प्राणी ऐसे ही नष्ट हो जाते हैं। वे मृत्यु की प्रक्रिया के सर्वप्रथम शिकार होते हैं और दुर्भाग्य से उन्हें इस क्रिया का भान तक नहीं होता कि वे उसका किसी प्रकार से विरोध कर सकें। मध्यम प्रकार के लोग विचारपूर्वक इस क्षय और नाश की प्रक्रिया को देखते हैं और उसके प्रति जागरूक भी होते हैं। वे अपने भाग्य के विषय में सोचकर आशंकित हो जाते हैं। वे यह नहीं जानते कि विनाश से वस्तुत कोई हानि नहीं होती? और समस्त प्राणियों के अपरिहार्य अन्त से भयकम्पित हो जाते हैं।परन्तु इनसे भिन्न उत्तम पुरुषों का एक वर्ग और भी है? जिन्हें समष्टि के स्वरूप एवं व्यवहार अर्थात् कार्यप्रणाली का पूर्ण ज्ञान होता है। उन्हें इस बात का भय कभी स्पर्श नहीं करता कि दैनिक जीवन में होने वाली घटनाएं उनके साथ भी घट सकती हैं। समुद्र के स्वरूप को पहचानने वालों को तरंगों के नाश से चिन्तित होने का कारण नहीं रहता है। इसी प्रकार? जब सिद्ध पुरुष उस महान विनाश को देखते हैं? जो एक मरणासन्न संस्कृति के पुनर्निमाण के पूर्व होता है? तब वे सत्य की इस महान शक्ति को पहचान कर ईश्वर निर्मित भावी जगत् के लिए शान्ति और कल्याण की कामना करते हैं। जिस किसी भी दृष्टि से हम इस काव्य का अध्ययन करते हैं? हम पाते हैं कि स्वयं व्यासजी कितने महान् मनोवैज्ञानिक हैं और उन्होंने कितनी सुन्दरता से यहाँ मानवीय व्यवहार के ज्ञान को एकत्र किया है? जिससे कि मनुष्य शीघ्र विकास करके अपने पूर्णत्व के लक्ष्य तक पहुँच सके।इस दर्शनीय दृश्य को देखकर स्वर्ग के देवताओं की क्या प्रतिक्रया हुई अर्जुन उसे बताते हुए कहता है
Swami Ramsukhdas
।।11.21।। व्याख्या--'अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति'--जब अर्जुन स्वर्गमें गये थे, उस समय उनका जिन देवताओंसे परिचय हुआ था, उन्हीं देवताओंके लिये यहाँ अर्जुन कह रहे हैं कि वे ही देवतालोग आपके स्वरूपमें प्रविष्ट होते हुए दीख रहे हैं। ये सभी देवता आपसे ही उत्पन्न होते हैं, आपमें ही स्थित रहते हैं और आपमें ही प्रविष्ट होते हैं।'केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति'--परन्तु उन देवताओंमेंसे जिनकी आयु अभी ज्यादा शेष है, ऐसे आजान देवता (विराट्रूपके अन्तर्गत) नृसिंह आदि भयानक रूपोंको देखकर भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आपके नाम, रूप, लीला गुण आदिका गान कर रहे हैं।यद्यपि देवतालोग नृसिंह आदि अवतारोंको देखकर और कालरूप मृत्युसे भयभीत होकर ही भगवान्का गुणगान कर रहे हैं (जो सभी विराट्रूपके ही अङ्ग हैं); परन्तु अर्जुनको ऐसा लग रहा है कि वे विराट्रूप भगवान्को देखकर ही भयभीत होकर स्तुति कर रहे हैं। 'स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घाः स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः'--सप्तर्षियों, देवर्षियों, महर्षियों, सनकादिकों और देवताओंके द्वारा स्वस्तिवाचन (कल्याण हो! मङ्गल हो!) हो रहा है और बड़े उत्तम-उत्तम स्तोत्रोंके द्वारा आपकी स्तुतियाँ हो रही हैं।
Swami Tejomayananda
।।11.21।। ये समस्त देवताओं के समूह आप में ही प्रवेश कर रहे हैं और कई एक भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आप की स्तुति करते हैं; महर्षि और सिद्धों के समुदाय 'कल्याण होवे' (स्वस्तिवाचन करते हुए) ऐसा कहकर, उत्तम (या सम्पूर्ण) स्रोतों द्वारा आपकी स्तुति करते हैं।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।11.21।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
Sri Anandgiri
।।11.21।।अमी हीत्यादि समनन्तरग्रन्थस्य तात्पर्यमाह -- अथेति। तं भगवन्तं पाण्डवजयमैकान्तिकं दर्शयन्तं पश्यन्नर्जुनो ब्रवीतीत्याह -- तं पश्यन्निति। विश्वरूपस्यैव प्रपञ्चनार्थमनन्तरग्रन्थजातमिति दर्शयति -- किञ्चेति। असुरसङ्घा इति पदं छित्त्वा भूभारभूता दुर्योधनादयस्त्वां विशन्तीत्यपि च वक्तव्यम्। उभयोरपि,सेनयोरवस्थितेषु योद्धुकामेष्ववान्तरविशेषमाह -- तत्रेति। समरभूमौ समागतानां द्रष्टुकामानां नारदप्रभृतीनां विश्वविनाशमाशङ्कमानानां तं परिजिहीर्षतां स्तुतिपदेषु भगवद्विषयेषु प्रवृत्तिप्रकारं दर्शयति -- युद्ध इति।
Sri Vallabhacharya
।।11.21।।Sri Vallabhacharya did not comment on this sloka.
Sridhara Swami
।।11.21।। किंच -- अमी हीति। अमी सुरसङ्घा भीताः सन्तः त्वां विशन्ति शरणं प्रविशन्ति। तेषां मध्ये केचिदतिभीताः दूरत एव स्थित्वा कृतसंपुटकरयुगुलाः सन्तो गृणन्ति जयजय रक्षरक्षेति प्रार्थयन्ते। स्पष्टमन्यत्।