Bhagavad Gita Chapter 11 Verse 19 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य- मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् | पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ||११-१९||
Transliteration
anādimadhyāntamanantavīryam anantabāhuṃ śaśisūryanetram . paśyāmi tvāṃ dīptahutāśavaktraṃ svatejasā viśvamidaṃ tapantam ||11-19||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
11.19 I see Thee without beginning, middle or end, infinite in power, of endless arms, the sun and the moon being Thy eyes, the burning fire Thy mouth, heating the whole universe with Thy radiance.
।।11.19।। मैं आपको आदि, अन्त और मध्य से रहित तथा अनंत सार्मथ्य से युक्त और अनंत बाहुओं वाला तथा चन्द्रसूर्यरूपी नेत्रों वाला और दीप्त अग्निरूपी मुख वाला तथा अपने तेज से इस विश्व को तपाते हुए देखता हूँ।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Cultivate a profound sense of purpose and resilience in your work, understanding that your efforts are part of a grander, interconnected cosmic play. Approach challenges with a broadened perspective, knowing that your energy and creativity draw from an infinite source, allowing you to innovate beyond perceived limitations.
🧘 For Stress & Anxiety
Alleviate stress and anxiety by surrendering to the vast, eternal, and infinitely powerful nature of existence. Gain profound perspective that individual troubles are fleeting against the backdrop of cosmic order, fostering a deep sense of peace, trust, and liberation from the need for absolute control.
❤️ In Relationships
Foster profound empathy, compassion, and acceptance in your relationships by recognizing the universal essence that connects all beings. Transcending petty grievances and ego-driven conflicts becomes easier when you perceive others as part of the same boundless, divine manifestation, promoting unity and understanding.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Recognize the limitless, eternal, and all-pervading divine essence as the source and sustainer of all existence, offering boundless power, peace, and perspective to navigate life's journey.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
11.19 अनादिमध्यान्तम् without beginning? middle or end? अनन्तवीर्यम् infinite in power? अनन्तबाहुम् of endless arms? शशिसूर्यनेत्रम् Thy eyes as the sun and the moon? पश्यामि (I) see? त्वाम् Thee? दीप्तहुताशवक्त्रम् Thy mouth as the burning fire? स्वतेजसा with Thy radiance? विश्वम् the universe? इदम् this? तपन्तम् heating.Commentary Anantabahu Having endless arms. This denotes that the multiplicity of His limbs are endless.
Shri Purohit Swami
11.19 Without beginning, without middle and without end, infinite in power, Thine arms all-embracing, the sun and moon Thine eyes, Thy face beaming with the fire of sacrifice, flooding the whole universe with light.
Dr. S. Sankaranarayan
11.19. I observe You having to beginning, no middle and no end; having infinite creative power, and infinite arms; as havig the moon and the sun for Your eyes, and the blazing fire for Your mouth; [and] as acorching this universe with Your rediance.
Swami Adidevananda
11.19 I behold You as without beginning, middle and end. Your might is infinite. You are endowed with an endless number of arms. The sun and moon are Your eyes. Your mouth is emitting burning fire. With Your own radiance You are warning the whole universe.
Swami Gambirananda
11.19 I see You as without beginning, middle and end, possessed of infinite valour, having innumerable arms, having the sun and the moon as eyes, having a mouth like a blazing fire, and heating up this Universe by Your own brilliance.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।11.19।। अर्जुन की सूक्ष्म दृष्टि ने जैसा देखा और बुद्धि ने जैसा समझा? उसे वह जगत् की वस्तुओं की भाषा में वर्णन करने का प्रयत्न करता है। मैं आपको आदि? अन्त और मध्य से रहित? अनन्त सार्मथ्य से युक्त? अनन्त बाहुओं वाला देखता हूँ। व्यास के प्रभावशाली काव्य द्वारा चित्रित यह शब्दचित्र ऐसा आभास निर्माण करता है कि मानों इस कविता की विषयवस्तु बाह्यजगत् की कोई दृश्य वस्तु हैं। अनेक चित्रकार उसे कागज पर रंगों के द्वारा चित्रित करना चाहते हैं। परन्तु वेदान्त के बुद्धिमान् विद्यार्थी को उनका अज्ञान स्पष्ट दिखाई देता है। आदि? मध्य और अन्त रहित ऐसी अनन्त वस्तु कभी सीमित फलक वाले चित्र की मर्यादा में व्यक्त नहीं की जा सकती। परन्तु? अनन्तबाहु इस शब्द को सुनकर प्रेरित हुए चित्रकार उसे तत्काल चित्रित करने का प्रयत्न करते हैं। वस्तुत? कवि के इन्द्रियातीत अनुभव की दृष्टि के समक्ष जगत् की सभी दृश्यावलियों से सर्वथा भिन्न और अनुपम जो विराट् दृश्य उपस्थित है? वास्तव में उसे केवल गम्भीर अध्ययनकर्ता सूक्ष्मदर्शी विद्यार्थी ही समझ,सकते हैं।यहाँ अनन्तबाहु का अर्थ केवल यह है कि परमात्मा ही वह चेतन तत्त्व है? जो समस्त बाहुओं को कार्य करने और सफलता पाने की आवश्यक सार्मथ्य प्रदान करता है।जो प्रकाश तत्त्व बाह्य वस्तुओं को प्रकाशित करता है वही हमारे नेत्रों पर भी अनुग्रह करता हुआ उन्हें वस्तु के दर्शन करने की योग्यता प्रदान करता है। यहाँ किया गया वर्णन समष्टि की दृष्टि से है? क्योंकि जगत् में हम सूर्य या चन्द्रमा के प्रकाश में वस्तुओं को देखते हैं? उन्हें यहाँ वेदान्त की शास्त्रीय भाषा में विराटपुरुष के नेत्र कहा गया है। हुताशवक्त्रम् (दीप्त अग्निरूपी मुखवाला) हुताश का अर्थ है अग्नि। वाणी का अधिष्ठाता देवता अग्नि है। इसीलिए? सभी भाषाओं में इस प्रकार के वाक्प्रचार प्रसिद्ध हैं कि उनमें गरमागरम बहस हुई? उसके उस वाक्य ने चिनगारी का काम किया इत्यादि। मुख ही भक्षण का तथा वाणी का स्थान होने से यहाँ अग्नि को विराटपुरुष का मुख कहा गया है।अपने तेज से विश्व को तपाते हुए आत्मा चैतन्य स्वरूप ही हो सकता है? क्योंकि प्राणीमात्र के समस्त अनुभवों को सर्वदा चैतन्य ही प्रकाशित करता है। यह चैतन्य न केवल वस्तुओं को प्रकाशित करता है? वरन् सूर्य के द्वारा समस्त विश्व के जीवन के लिए आवश्यक उष्णता भी प्रदान करता है। इस कथन से यह सिद्ध हो जाता है कि बाह्य जगत् का निरीक्षण और अध्ययन करने के पश्चात् ही हिन्दू ऋषियों ने अपनी दृष्टि को अन्तर्मुखी बनाया था। ऐसा प्रतीत होता है कि वे यह जानते थे कि किसी एक विशेष तापमान पर ही पृथ्वी पर जीवन संभव है उससे न्यून या अधिक तापमान होने पर जीवन लुप्त हो जायेगा।सत्य का यह प्रकाश उसका स्वस्वरूप है? और न कि किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया हुआ है। स्वतेजसा शब्द से यह बात स्पष्ट की गई है। उसी से जीवन धारण किया हुआ है।अर्जुन आगे कहता है
Swami Ramsukhdas
।।11.19।। व्याख्या--'अनादिमध्यान्तम्'--आप आदि, मध्य और अन्तसे रहित हैं अर्थात् आपकी कोई सीमा नहीं है।सोलहवें श्लोकमें भी अर्जुनने कहा है कि मैं आपके आदि, मध्य और अन्तको नहीं देखता हूँ। वहाँ तो,देशकृत अनन्तताका वर्णन हुआ है और यहाँ कालकृत अनन्तताका वर्णन हुआ है। तात्पर्य है कि 'देशकृत' 'कालकृत' वस्तुकृत आदि किसी तरहसे भी आपकी सीमा नहीं है। सम्पूर्ण देश, काल आदि आपके अन्तर्गत हैं, फिर आप देश, काल आदिके अन्तर्गत कैसे आ सकते हैं? अर्थात् देश, काल आदि किसीके भी आधारपर आपको मापा नहीं जा सकता।'अनन्तवीर्यम्' -- आपमें अपार पराक्रम, सामर्थ्य, बल और तेज है। आप अनन्त, असीम, शक्तिशाली हैं। 'अनन्तबाहुम्' (टिप्पणी प0 586.1) -- आपकी कितनी भुजाएँ हैं, इसकी कोई गिनती नहीं हो सकती। आप अनन्त भुजाओंवाले हैं।'शशिसूर्यनेत्रम्'--संसारमात्रको प्रकाशित करनेवाले जो चन्द्र और सूर्य हैं, वे आपके नेत्र हैं। इसलिये संसारमात्रको आपसे ही प्रकाश मिलता है।'दीप्तहुताशवक्त्रम्'--यज्ञ, होम आदिमें जो कुछ अग्निमें हवन किया जाता है, उन सबको ग्रहण करनेवाले देदीप्यमान अग्निरूप मुखवाले आप ही हैं।'स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्'--अपने तेजसे सम्पूर्ण विश्वको तपानेवाले आप ही हैं। तात्पर्य यह है कि जिन-जिन व्यक्तियों, वस्तुओं, परिस्थितियों आदिसे प्रतिकूलता मिल रही है, उन-उनसे ही सम्पूर्ण प्राणी संतप्त हो रहे हैं। संतप्त करनेवाले और संतप्त होनेवाले -- दोनों एक ही विराट्रूपके अङ्ग हैं।
Swami Tejomayananda
।।11.19।। मैं आपको आदि, अन्त और मध्य से रहित तथा अनंत सार्मथ्य से युक्त और अनंत बाहुओं वाला तथा चन्द्रसूर्यरूपी नेत्रों वाला और दीप्त अग्निरूपी मुख वाला तथा अपने तेज से इस विश्व को तपाते हुए देखता हूँ।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।11.19।।शशिसूर्यनेत्रं इत्यपिअहं क्रतुः [9।16] इत्यादिवत्। तदङ्गजाः सर्वसुरादयोऽपि तस्मात्तदङ्गेत्यृषिभिः स्तुतास्ते इत्यृग्वेदखिलेषु। चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत [ऋक्सं.8।4।19।3यजुस्सं.31।12] इति च। बहुरूपत्वाद्बह्वाश्रयत्वं तेषां युक्तम्।
Sri Anandgiri
।।11.19।।भगवतो विश्वरूपाख्यं रूपमेव पुनर्विवृणोति -- किञ्चेति। हुतमश्नातीति हुताशो वह्निः।
Sri Vallabhacharya
।।11.19।।किञ्च अनादिमध्यान्तमिति। कालरूपमेतदाधिदैविकं तदाह -- शशिसूर्यनेत्रमिति। कालाभिमानिनौ शशिसूर्यौ नेत्रे यस्य। तथा सायङ्कालाभिमानी दीप्तो हुताशश्च वक्त्रेषु यस्य तं त्वां पश्यामि।
Sridhara Swami
।।11.19।। किंच -- अनादीति। अनादिमध्यान्तमुत्पत्तिस्थितिप्रलयरहितम्। अनन्तं वीर्यं प्रभावो यस्य तम्। अनन्तबाहुं अनन्ता बाहवो यस्य तम्। शशिसूर्यौ नेत्रे यस्य तम् तादृशं त्वां पश्यामि। तथा दीप्तो हुताशोऽग्निर्वक्त्रेषु यस्य तम् स्वतेजसा इदं विश्वं तपन्तं संतापयन्तं पश्यामि।