Bhagavad Gita Chapter 11 Verse 16 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् | नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ||११-१६||
Transliteration
anekabāhūdaravaktranetraṃ paśyāmi tvāṃ sarvato.anantarūpam . nāntaṃ na madhyaṃ na punastavādiṃ paśyāmi viśveśvara viśvarūpa ||11-16||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
11.16 I see Thee of boundless form on every side with many arms, stomachs, mouths and eyes: neither the end nor the middle nor also the beginning do I see, O Lord of the universe, O Cosmic Form.
।।11.16।। हे विश्वेश्वर! मैं आपकी अनेक बाहु, उदर, मुख और नेत्रों से युक्त तथा सब ओर से अनन्त रूपों वाला देखता हूँ। हे विश्वरूप! मैं आपके न अन्त को देखता हूँ और न मध्य को और न आदि को।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Cultivate a holistic perspective, recognizing the interconnectedness of tasks and roles within the larger organizational or industry ecosystem. Embrace diverse team members and ideas as integral parts of a greater whole, fostering innovation and comprehensive solutions by seeing beyond immediate confines.
🧘 For Stress & Anxiety
Gain profound perspective by contemplating the infinite and boundless nature of existence. Personal challenges and perceived limitations appear smaller when viewed against this vast backdrop, fostering a sense of surrender, reducing anxiety about control or finite outcomes, and promoting inner peace.
❤️ In Relationships
See the underlying unity and shared humanity in all individuals, despite their diverse appearances, roles, or opinions. This promotes empathy, acceptance, and a deeper understanding that relationships, like the divine, are complex, evolving, and interconnected, encouraging harmony amidst diversity.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Recognize the boundless, all-encompassing nature of existence and the divine presence within it, fostering awe, humility, and a holistic perspective that transcends all limitations.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
11.16 अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रम् with manifold arms? stomachs? mouths and eyes? पश्यामि (I) see? त्वाम् Thee? सर्वतः on every side? अनन्तरूपम् of boundless form? न not? अनत्म् end? न not? मध्यम् middle? न not? पुनः,again? तव Thy? आदिम् origin? पश्यामि (I) see? विश्वेश्वर O Lord of the universe? विश्वरूप O Cosmic Form.Commentary A thing that is limited by space and time has a begining? a middle and an end? but the Lord is omnipresent and eternal. He exists in the three periods of time -- past? present and future? but is not limited by time and space. Therefore He has neither a beginning nor middle nor end.Arjuna could have this divine vision only with the help of the divine eye bestowed upon him by the Lord. He who has supreme devotion to the Lord and on whom the Lord showers His grace can enjoy this wondrous vision.
Shri Purohit Swami
11.16 I see Thee, infinite in form, with, as it were, faces, eyes and limbs everywhere; no beginning, no middle, no end; O Thou Lord of the Universe, Whose Form is universal!
Dr. S. Sankaranarayan
11.16. I behold You of many arms, bellies, mouths and eyes and of infinite forms on all sides; of You, I find neither the end, nor the centre, nor the beginnng too, O Lord of the universe, O Universal-formed One !
Swami Adidevananda
11.16 With manifold arms, stomachs, mouths and eyes, I behold Your infinite form on all sides. I see no end, no middle nor the beginning too of You, O Lord of the universe, O You of Universal Form.
Swami Gambirananda
11.16 I see You as possessed of numerous arms, bellies, mouths and eyes; as having infinite forms all around. O Lord of the Universe, O Cosmic Person, I see not Your limit nor the middle, nor again the beginning!
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।11.16।। विश्वरूप के अनन्त वैभव को एक ही दृष्टिक्षेप में देख पाने के लिए मानव की परिच्छिन्न बुद्धि उपयुक्त साधन नहीं है। इस रूप के परिमाण की विशालता और उसके गूढ़ अभिप्राय से ही मनुष्य की? बुद्धि निश्चय ही? लड़खड़ाकर रह जाती है। भगवान् ही वह एकमेव सत्य तत्त्व हैं जो सभी प्राणियों की कर्मेन्द्रियों के पीछे चैतन्य रूप से विद्यमान हैं। अर्जुन इसे इन शब्दों में सूचित करता है कि मैं आपको अनेक बाहु? उदर? मुख और नेत्रों से युक्त सर्वत्र अनन्तरूप में देखता हूँ। इसे सत्य का व्यंग्यचित्र नहीं समझ लेना चाहिये। सावधानी की सूचना उन शीघ्रता में काम आने वाले चित्रकारों के लिए आवश्यक है? जो इस विषयवस्तु से स्फूर्ति और प्रेरणा पाकर इस विराट् रूप को अपने रंगों और तूलिका के द्वारा चित्रित करना चाहते हैं और अपने प्रयत्न में अत्यन्त दयनीय रूप से असफल होते हैं।विश्व की एकता कोई दृष्टिगोचर वस्तु नहीं है यह साक्षात्कार के योग्य एक सत्य तथ्य है। इस तथ्य की पुष्टि अर्जुन के इन शब्दों से होती है कि मैं न आपके अन्त को देखता हूँ? और न मध्य को और न आदि को। विराट् पुरुष का वर्णन इससे और अधिक अच्छे प्रकार से नहीं किया जा सकता था।उपर्युक्त ये श्लोक सभी परिच्छिन्न वस्तुओं के और मरणशील प्राणियों में सूत्र रूप से व्याप्त उस एकत्व का दर्शन कराते हैं? जिसने उन्हें इस विश्वरूपी माला के रूप मे धारण किया हुआ हैअर्जुन आगे कहता है
Swami Ramsukhdas
।।11.16।। व्याख्या--'विश्वरूप',विश्वेश्वर'--इन दो सम्बोधनोंका तात्पर्य है कि मेरेको जो कुछ भी दीख रहा है, वह सब आप ही हैं और इस विश्वके मालिक भी आप ही हैं। सांसारिक मनुष्योंके शरीर तो जड होते हैं और उनमें शरीरी चेतन होता है; परन्तु आपके विराट्रूपमें शरीर और शरीरी-- ये दो विभाग नहीं हैं। विराट्रूपमें शरीर और शरीरीरूपसे एक आप ही हैं। इसलिये विराट्रूपमें सब कुछ चिन्मय-ही-चिन्मय है। तात्पर्य यह हुआ कि अर्जुन विश्वरूप सम्बोधन देकर यह कह रहे हैं कि आप ही शरीर हैं और 'विश्वेश्वर' सम्बोधन देकर यह कह रहे हैं कि आप ही शरीरी (शरीरके मालिक) हैं। 'अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रम्'--मैं आपके हाथोंकी तरफ देखता हूँ तो आपके हाथ भी अनेक हैं; आपके पेटकी तरफ देखता हूँ तो पेट भी अनेक हैं; आपके मुखकी तरफ देखता हूँ तो मुख भी अनेक हैं; और आपके नेत्रोंकी तरफ देखता हूँ तो नेत्र भी अनेक हैं। तात्पर्य है कि आपके हाथों, पेटों, मुखों और नेत्रोंका कोई,अन्त नहीं है, सब-के-सब अनन्त हैं। 'पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्'--आप देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदिके रूपमें चारों तरफ अनन्त-ही-अनन्त दिखायी दे रहे हैं।'नान्तं न मध्यं पुनस्तवादिम्'--आपका कहाँ अन्त है, इसका भी पता नहीं; आपका कहाँ मध्य है, इसका भी पता नहीं और आपका कहाँ आदि है, इसका ���ी पता नहीं।सबसे पहले 'नान्तम्' कहनेका तात्पर्य यह मालूम देता है कि जब कोई किसीको देखता है, तब सबसे पहले उसकी दृष्टि उस वस्तुकी सीमापर जाती है कि यह कहाँतक है। जैसे, किसी पुस्तकको देखनेपर सबसे पहले उसकी सीमापर दृष्टि जाती है कि पुस्तककी लम्बाई-चौड़ाई कितनी है। ऐसे ही भगवान्के विराट्रूपको देखनेपर अर्जुनकी दृष्टि सबसे पहले उसकी सीमा-(अन्त-) की ओर गयी। जब अर्जुनको उसका अन्त नहीं देखा, तब उनकी दृष्टि मध्यभागपर गयी फिर आदि-(आरम्भ-) की तरफ दृष्टि गयी; पर कहीं भी विराट्स्वरूपका अन्त, मध्य और आदिका पता नहीं लगा। इसलिये इस श्लोकमें 'नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिम्' -- यह क्रम रखा गया है।
Swami Tejomayananda
।।11.16।। हे विश्वेश्वर! मैं आपकी अनेक बाहु, उदर, मुख और नेत्रों से युक्त तथा सब ओर से अनन्त रूपों वाला देखता हूँ। हे विश्वरूप! मैं आपके न अन्त को देखता हूँ और न मध्य को और न आदि को।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।11.16।।अनेकशब्दोऽनन्तवाची?अनन्तबाहुं [11।19] इति स्वयं वक्ष्यतिसर्वतः पाणिपादं तत् इत्यादि च। विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात्। सं बाहुभ्यां धमति सं पतत्त्रैर्द्यावाभूमी जनयन् देव एकः [ऋक्सं.2।2।4।24म.ना.2।2श्वे.उ.3।3] इति ऋग्वेदखिलेषु। विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्यात्। सं बाहुभ्यां नमति सं पतत्त्रद्यौर्वाभूमी जनयन्देव एकः इति यजुर्वेदे च। विश्वशब्दश्चानन्तवाची।सर्वं समस्तं विश्वं च अनन्तं पूर्ण(र्व)मेव च इत्यभिधानात्। अनन्तबाहुमनन्तपादमनन्तरूपं पुरुवक्त्रमेकम् इति च (सामवेदस्य) बाभ्रव्यशाखायाम्। महत्त्वाद्युक्तिस्तु तदात्मकत्वेनापि भवति।अन्यथाअनादिमत्परं ब्रह्म [13।12] इत्याद्ययुक्तं स्यात्। एकत्र त्वनन्तान्यस्य रूपाणीत्यनन्तरूपः। अन्यत्र त्वपरिमाण इति। उक्तं ह्युभयमपि -- परात्परं यन्महतो महान्तं यदेकमव्यक्तमनन्तरूपम् इति यजुर्वेदे। अव्यक्तस्यानन्तत्वादेव महतो महत्त्वे अपरिमितत्वं सिध्यति।महान्तं च समावृत्य प्रधानं समव(समुप)स्थितम्। अनन्तस्य न तस्यान्तस्सङ्ख्यानं चापि विद्यते इत्यादित्यपुराणे। तानि चैकैकानि रूपाण्यनन्तानीति चैकत्र भवति। असंख्याता ज्ञानकास्तस्य देहाः सर्वे परिमाणविवर्जिताश्च इत्यृग्वेदखिलेषु। यावान्वा अयमाकाशस्तावानेषोन्तर्हृदय आकाश उभे अस्मिन् द्यावापृथिवी अन्तरेव समाहिते। उभावग्निश्च वायुश्च सूर्याचन्द्रमसावुभौ [छा.उ.8।1।3] इति च।कृष्णस्य गर्भजगतोऽतिभरावसन्नं पार्ष्णिप्रहारपरिरुग्णफणातपत्रम्,[10।16।31] इति च भागवते।न चैतदयुक्तम्? अचिन्त्यशक्तित्वादीश्वरस्य।अचिन्त्याः खलु ये भावा न तांस्तर्केण योजयेत् इति च श्रीविष्णुपुराणे [ ]। नैषा तर्केण मतिरापनेया [कठो.2।9] इति श्रुतिः। अतिप्रसङ्गस्तु महातात्पर्यवशात् वाक्यबलाच्चापनेयः। न हि घटवत्कश्चित्पदार्थो न दृष्ट इत्येतावता प्रमाणदृष्टः सन्निराक्रियते। केषुचित्पदार्थेषु वाक्यव्यवस्था अचिन्त्यशीकृत्वा भावादङ्गीक्रियते।गुणाः श्रुताः सुविरुद्धाश्च देवे सन्त्यश्रुता अपि नैवात्र शङ्का। चिन्त्या अचिन्त्याश्च तथैव दोषाः श्रुताश्च नाज्ञैर्हि तथा प्रतीताः। एवं परेऽन्यत्र श्रुताश्रुतानां गुणागुणानां च क्रमाद्व्यवस्था इति जाबालिखिले श्रुतेश्च। उपचारत्वपरिहाराय न मध्यमिति। अन्यथा आद्यन्तभावेनैव तत्सिद्धेः। विश्वरूपः पूर्णरूपः स विश्वरूपो अनूनरूपो अतोऽयं सोऽनन्तरूपो न हि नाशोऽस्ति तस्य इति शाण्डिल्यशाखायाम्।
Sri Anandgiri
।।11.16।।यत्र भगवद्देहे सर्वमिदं दृष्टं तमेव विशिनष्टि -- अनेकेति। आदिशब्देन मूलमुच्यते। नान्तं न मध्यमित्यत्रापि पश्यामीत्यस्य प्रत्येकं संबन्धं सूचयति -- नान्तं पश्यामीति।
Sri Vallabhacharya
।।11.16।।अनेकेति। कूटस्थत्वात्।
Sridhara Swami
।।11.16।। किंच -- अनेकेति। अनेकानि बाह्वादीनि यस्य तादृशं पश्यामि। अनन्तानि रूपाणि यस्य तं त्वां सर्वतः पश्यामि। तव तु अन्तं मध्यमादिं च न पश्यामि सर्वगतत्वात्।