Bhagavad Gita Chapter 10 Verse 8 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते | इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ||१०-८||
Transliteration
ahaṃ sarvasya prabhavo mattaḥ sarvaṃ pravartate . iti matvā bhajante māṃ budhā bhāvasamanvitāḥ ||10-8||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
10.8 I am the source of all; from Me everything evolves; understanding thus, the wise, endowed with meditation, worship Me.
।।10.8।। मैं ही सबका प्रभव स्थान हूँ; मुझसे ही सब (जगत्) विकास को प्राप्त होता है, इस प्रकार जानकर बुधजन भक्ति भाव से युक्त होकर मुझे ही भजते हैं।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Instead of solely chasing external achievements or material gains, recognize that all work, creativity, and resources ultimately stem from a universal source. Approach tasks with a sense of dedicated service, viewing your efforts as a contribution to the larger cosmic flow, and practice detachment from specific outcomes, knowing they are part of a greater evolutionary process. This brings deeper meaning and reduces burnout.
🧘 For Stress & Anxiety
When overwhelmed by life's changes and uncertainties, remember that all forms and events evolve from and are supported by an eternal, unchanging source. Cultivate an inner sanctuary through contemplation or meditation, grounding yourself in this ultimate reality. This perspective provides an unshakable foundation, alleviating anxiety and fostering resilience against external pressures and losses.
❤️ In Relationships
View all individuals and connections as manifestations of the same divine source. This fosters deeper empathy, compassion, and understanding, moving beyond superficial differences or temporary conflicts. While cherishing bonds, understand their transient nature and find stable joy not just in the forms of relationships, but in the underlying unity that connects all beings, leading to more unconditional love.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Recognize the Divine as the ultimate source and essence of all existence; aligning with this truth through wisdom and devotion leads to profound inner peace and an unwavering sense of purpose amidst life's constant flux.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
10.8 अहम् I? सर्वस्य of all? प्रभवः the source? मत्तः from Me? सर्वम् everything? प्रवर्तते evolves? इति thus? मत्वा understanding? भजन्ते worship? माम् Me? बुधाः the wise? भावसमन्विताः endowed with meditation. Commentary Waves originate in water? depend on water and dissolve in water. The only support for the waves is water. Even so the only support for the whole world is the Lord. Realising this? feeling the omnipresence of the Lord? the wise worship Him with devotion and affection in all places. The Supreme is the same in all countries and at all times. He is the material and the efficient cause.As Mulaprakriti or Avyaktam the Lord is the source of all forms. The Lord is the primum mobile. He gazes at His Sakti (creative power) and the whole world evolves and the forms move. The worldly man who has neither sharp nor subtle intellect beholds the changing forms only through the fleshly eyes. He has no idea of the Indwelling Presence? the substratum? the allpervading intelligence or the blissful consciousness. He is allured by the passing forms. He fixes his hopes and joy on these transitory forms. He lives and exerts for them. He rejoices when he gets a wife and children. If these forms pass away he is drowned in sorrow. But the wise ones constantly dwell in the Supreme? the source and the life of all? and enjoy the eternal bliss of the immortal? inner Self? their own nondual Atman? albeit all these forms around them change and pass away. They are steadfast in Yoga. They are endowed with unshakable Yoga. They are enthroned in Yoga. They worship the Supreme in contemplation and enjoy the indescribable bliss of Nirvikalpa Samadhi.Para Brahman? known as Vaasudeva? is the source of the whole world. From Him alone evolves the whole world with all its changes? viz.? existence (Sthiti)? destruction (Nasa)? action (Kriya)? fruit (Phala) and enjoyment (Bhoga). Understanding thus? the wise adore the Supreme Being and engage themselves in profound meditation on the Absolute. (Cf.IX.10)
Shri Purohit Swami
10.8 I am the source of all; from Me everything flows. Therefore the wise worship Me with unchanging devotion.
Dr. S. Sankaranarayan
10.8. 'He is the source of all and from Him all comes forth' - Thus viewing, the wise men revere Me with devotion.
Swami Adidevananda
10.8 I am the origin of all; from Me proceed everything thinking thus the wise worship Me with all devotion (Bhava).
Swami Gambirananda
10.8 I am the origin of all; everything moves on owing to Me. Realizing thus, the wise ones, filled with fervour, adore Me.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।10.8।। व्यष्टि और समष्टि में जो भेद है वह उन उपाधियों के कारण है? जिनके माध्यम से एक ही सनातन? परिपूर्ण सत्य प्रकट होता है। इन दो उपाधियों के कारण ब्रह्म को ही क्रमश जीव और ईश्वर भाव प्राप्त होते हैं जैसे एक ही विद्युत् शक्ति बल्ब और हीटर में क्रमश प्रकाश और ताप के रूप में व्यक्त होती है। स्वयं विद्युत् में न प्रकाश है और न उष्णता। इसी प्रकार स्वयं परमात्मा में न ईश्वर भाव है और न जीव भाव। जो पुरुष इसे तत्त्वत जानता है वह अविकम्प योग के द्वारा ब्रह्मनिष्ठता को प्राप्त होता है।एक कुम्भकार कुम्भ बनाने के लिए सर्वप्रथम घट के निर्माण के उपयुक्त लचीली मिट्टी तैयार करता है। तत्पश्चात् उस मिट्टी के गोले को चक्र पर रखकर घटाकृति में परिवर्तित करता है। तीसरी अवस्था में घट को सुखाकर उसे चमकीला किया जाता है और चौथी अवस्था में उस तैयार घट को पकाकर उस पर रंग लगाया जाता है। घट निर्माण की इस क्रिया में मिट्टी निश्चय ही कह सकती है कि वह घट का प्रभव स्थान है। चार अवस्थाओं में घट का जो विकास होता है? उसका भी अधिष्ठान मिट्टी ही थी? न कि अन्य कोई वस्तु। यह बात सर्वकालीन घटों के सम्बन्ध में सत्य है। किसी भी घट की उत्पत्ति? वृद्धि और विकास उसके उपादान कारणभूत मिट्टी के बिना नहीं हो सकता। इसी प्रकार एक ही चैतन्यस्वरूप परमात्मा? ईश्वर और जीव के रूप में प्रतीत होता है।जिस पुरुष ने विवेक के द्वारा व्यष्टि और समष्टि के इस सूक्ष्म भेद को समझ लिया है? वही पुरुष अपने मन को बाह्य जगत् से निवृत्त करके इन दोनों के अधिष्ठान स्वरूप आत्मा में स्थिर कर सकता है। मन के इस भाव को ही यहाँ इस अर्थपूर्ण शब्द भावसमन्विता के द्वारा दर्शाया गया है।प्रेम या भक्ति का मापदण्ड है पुरुष की अपनी प्रिय वस्तु के साथ तादात्म्य करने की क्षमता। संक्षेपत? प्रेम की परिपूर्णता इस तादात्म्य की पूर्णता में है। जब एक भक्त स्वयं यह अनुभव कर लेता है कि एक परमात्मा ही समष्टि और व्यष्टि की अन्तकरण की उपाधियों के माध्यम से मानो ईश्वर और जीव बन गया है? तब वह पराभक्ति को प्राप्त भक्त कहा जाता है।जिस भक्ति के विषय में पूर्व श्लोक में केवल एक संकेत ही किया गया था? उसी को यहाँ क्रमबद्ध करके एक साधना का रूप दिया गया है? जिसके अभ्यास से उपर्युक्त ज्ञान प्रत्येक साधक का अपना निजी और घनिष्ट अनुभव बन सकता है।
Swami Ramsukhdas
।।10.8।। व्याख्या --[पूर्व श्लोककी बात ही इस श्लोकमें कही गयी है। 'अहं सर्वस्य प्रभवः' में 'सर्वस्य' भगवान्की विभूति है अर्थात् देखने, सुनने, समझनेमें जो कुछ आ रहा है, वह सब-की-सब भगवान्की विभूति ही है। 'मत्तः सर्वं प्रवर्तते' में 'मत्तः' भगवान्का योग (प्रभाव) है, जिससे सभी विभूतियाँ प्रकट होती हैं। सातवें, आठवें और नवें अध्यायमें जो कुछ कहा गया है, वह सबकासब इस श्लोकके पूर्वार्धमें आ गया है।] 'अहं सर्वस्य प्रभवः' -- मानस, नादज, बिन्दुज, उद्भिज्ज, जरायुज, अण्डज, स्वेदज अर्थात् जड-चेतन, स्थावर-जङ्गम यावन्मात्र जितने प्राणी होते हैं, उन सबकी उत्पत्तिके मूलमें परमपिता परमेश्वरके रूपमें मैं ही हूँ (टिप्पणी प0 543)। यहाँ प्रभव का तात्पर्य है कि मैं सबका 'अभिन्न-निमित्तोपादानकारण' हूँ अर्थात् स्वयं मैं ही सृष्टिरूपसे प्रकट हुआ हूँ। 'मत्तः सर्वं प्रवर्तते' -- संसारमें उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, पालन, संरक्षण आदि जितनी भी चेष्टाएँ होती हैं, जितने भी कार्य होते हैं, वे सब मेरेसे ही होते हैं। मूलमें उनको सत्ता-स्फूर्ति आदि जो कुछ मिलता है, वह सब मेरेसे ही मिलता है। जैसे बिजलीकी शक्तिसे सब कार्य होते हैं, ऐसे ही संसारमें जितनी क्रियाएँ होती हैं, उन सबका मूल कारण मैं ही हूँ। 'अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते' -- कहनेका तात्पर्य है कि साधककी दृष्टि प्राणिमात्रके भाव, आचरण, क्रिया आदिकी तरफ न जाकर उन सबके मूलमें स्थित भगवान्की तरफ ही जानी चाहिये। कार्य, कारण, भाव, क्रिया, वस्तु, पदार्थ, व्यक्ति आदिके मूलमें जो तत्त्व है, उसकी तरफ ही भक्तोंकी दृष्टि रहनी चाहिये। सातवें अध्यायके सातवें तथा बारहवें श्लोकमें और दसवें अध्यायके पाँचवें और इस (आठवें) श्लोकमें 'मत्तः' पद बार-बार कहनेका तात्पर्य है कि ये भाव, क्रिया, व्यक्ति आदि सब भगवान्से ही पैदा होते हैं, भगवान्में ही स्थित रहते हैं और भगवान्में ही लीन हो जाते हैं। अतः तत्त्वसे सब कुछ भगवत्स्वर���प ही है -- इस बातको जान लें अथवा मान लें, तो भगवान्के साथ अविकम्प (कभी विचलित न किया जानेवाला) योग अर्थात् सम्बन्ध हो जायगा। यहाँ 'सर्वस्य 'और 'सर्वम्' -- दो बार 'सर्व' पद देनेका तात्पर्य है कि भगवान्के सिवाय इस सृष्टिका न कोई उत्पादक है और न कोई संचालक है। इस सृष्टिके उत्पादक और संचालक केवल भगवान् ही हैं। 'इति मत्वा भावसमन्विताः' -- भगवान्से ही सब संसारकी उत्पत्ति होती है और सारे संसारको सत्ता-स्फूर्ति भगवान्से ही मिलती है अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म और कारण-रूपसे सब कुछ भगवान् ही हैं -- ऐसा जो दृढ़तासे मान लेते हैं, वे 'भगवान् ही सर्वोपरि हैं; भगवान्के समान कोई हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं तथा होना सम्भव भी नहीं' -- ऐसे सर्वोच्च भावसे युक्त हो जाते हैं। इस प्रकार जब उनकी महत्त्वबुद्धि केवल भगवान्में हो जाती है तो फिर उनका आकर्षण, श्रद्धा, विश्वास, प्रेम आदि सब भगवान्में ही हो जाते हैं। भगवान्का ही आश्रय लेनेसे उनमें समता, निर्विकारता, निःशोकता, निश्चिन्तता, निर्भयता आदि स्वतः-स्वाभाविक ही आ जाते हैं। कारण कि जहाँ देव (परमात्मा) होते हैं, वहाँ दैवी-सम्पत्ति स्वाभाविक ही आ जाती है। 'बुधाः' -- भगवान्के सिवाय अन्यकी सत्ता ही न मानना, भगवान्को ही सबके मूलमें मानना, भगवान्का ही आश्रय लेकर उनमें ही श्रद्धा-प्रेम करना -- यही उनकी बुद्धिमानी है। इसलिये उनको बुद्धिमान् कहा गया है। इसी बातको आगे पन्द्रहवें अध्यायमें कहा है कि जो मेरेको क्षर-(संसारमात्र-) से अतीत और अक्षर-(जीवात्मा-) से उत्तम जानता है, वह सर्ववित् है और सर्वभावसे मेरा ही भजन करता है (15। 18 19)।'माम् भजन्ते'-- भगवान्के नामका जप-कीर्तन करना, भगवान्के रूपका चिन्तन-ध्यान करना, भगवान्की कथा सुनना, भगवत्सम्बन्धी ग्रन्थों-(गीता, रामायण, भागवत आदि) का पठन-पाठन करना -- ये सब-के-सब भजन हैं। परन्तु असली भजन तो वह है, जिसमें हृदय भगवान्की तरफ ही खिंच जाता है, केवल भगवान् ही प्यारे लगते हैं, भगवान्की विस्मृति चुभती है, बुरी लगती है। इस प्रकार भगवान्में तल्लीन होना ही असली भजन है। विशेष बात सबके मूलमें परमात्मा है और परमात्मासे ही वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, घटना आदि सबको सत्ता-स्फूर्ति मिलती है -- ऐसा ज्ञान होना परमात्मप्राप्ति चाहनेवाले सभी साधकोंके लिये बहुत आवश्यक है। कारण कि जब सबके मूलमें परमात्मा ही है, तब साधकका लक्ष्य भी परमात्माकी तरफ ही होना चाहिये। उस परमात्माकी तरफ लक्ष्य करानेमें ही सम्पूर्ण विभूतियों और योगके ज्ञानका तात्पर्य है। यही बात गीतामें जगह-जगह बतायी गयी है; जैसे -- जिससे सम्पूर्ण प्राणियोंकी प्रवृत्ति होती है और जिससे सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्माका अपने कर्तव्य-कर्मोंके द्वारा पूजन करना चाहिये (18। 46); जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें विराजमान है और जो सब प्राणियोंको प्रेरणा देता है, उस परमात्माकी सर्वभावसे शरण जाना चाहिये (18। 61 62); इत्यादि। कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग-- ये साधन तो अपनी-अपनी रुचिके अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, पर उपर्युक्त ज्ञान सभी साधकोंके लिये बहुत ही आवश्यक है। सम्बन्ध -- अब आगेके श्लोकमें उन भक्तोंका भजन किस रीतिसे होता है-- यह बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।10.8।। मैं ही सबका प्रभव स्थान हूँ; मुझसे ही सब (जगत्) विकास को प्राप्त होता है, इस प्रकार जानकर बुधजन भक्ति भाव से युक्त होकर मुझे ही भजते हैं।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।10.8 -- 10.10।।सन्ति च भजन्तः केचिदित्याह -- अहमित्यादिना।
Sri Anandgiri
।।10.8।।कथं तावकविभूत्यैश्वर्यज्ञानमुक्तयोगस्य हेतुरिति मत्वा पृच्छति -- कीदृशेनेति। उक्तज्ञानमाहात्म्यात्प्रतिष्ठिता भगवन्निष्ठा सिद्ध्यतीत्याह -- उच्यत इति। प्रभवत्यस्मादिति प्रभवः सर्वप्रकृतिः सर्वात्मेत्याह -- उत्पत्तिरिति। सर्वज्ञात्सर्वेश्वरान्मत्तो निमित्तात्सस्थितिनाशादि भवति मया चान्तर्यामिणा प्रेर्यमाणं सर्वं यथास्वं मर्यादामनतिक्रम्य चेष्टते तदाह -- मत्त इति। इत्थं मम सर्वात्मत्वं सर्वप्रकृतित्वं सर्वेश्वरत्वं सर्वज्ञत्वं च महिमानं ज्ञात्वा मय्येव निष्ठावन्तो भवन्तीत्याह -- इत्येवमिति। संसारासारताज्ञानवतां भगवद्भजनेऽधिकारं द्योतयति -- अवगतेति। परमार्थतत्त्वे पूर्वोक्तरीत्या ज्ञाते प्रेमादरावभिनिवेशाख्यौ भवतस्तेन संयुक्तत्वं च भगवद्भजने भवति हेतुरित्याह -- भावेति।
Sri Vallabhacharya
।।10.8 -- 10.10।।विभूतियोगज्ञानविपाकरूपभक्तिविवृद्धिं दर्शयति चतुर्भिः पुमर्थरूपैः अहमित्यादिभिः -- अहं सर्वस्य प्रभव इत्यादि। विश्वोत्पादकत्वप्रवर्त्तकत्वरूपस्वयोगविभूतिस्वरूपाविष्करणं इत्येवं मम योगं विभूतिं च भगवन्मार्गीयाचार्योपदेशद्वारा मयि भावो भक्तिस्तया समन्विता मां सेवन्ते बुधाः। एते च माहात्म्यज्ञानपूर्वकभक्तिमन्तो भगवत्सेवकाः स्वरूपतो निर्दिश्यन्ते भगवन्मार्गीया उद्धवादय इव। मच्चित्ता इति मदर्पितान्तःकरणाः। मद्गतप्राणा इति -- प्राणशब्द इन्द्रियप्राणवाचक इति मदर्पितेन्द्रियप्राणाः मयि सततं युक्ता देहेनेति? समर्पितदेहाः आत्मना वा भगवति सततं युक्ताः अयमेव ब्रह्मसम्बन्धः भगवते कृष्णाय दारागारपुत्राप्त -- इतिवाक्यात्आत्मना सह तत्तदीहापराणि देहेन्द्रियप्राणान्तःकरणानि तद्धर्मांश्च समर्पयित्वा स्वयं दासभूता नित्यं भगवन्तं भजन्ते सेवामार्गप्रकारेण सेवन्ते? न पूजाडम्बरेणेति? सेवायां स्थितिस्तेषामुक्तासेवायां वा कथायां वा इति भक्तिवर्द्धिन्यां कथायां च स्थितिमाह -- परस्परं बोधयन्तः कथयन्तश्च मां इति। तदपि नित्यं? न तु नैमित्तिकम्। तथैव च तुष्यन्ति मनउत्सवादिषु च रमन्ति अनुकरणेन वा क्री़डन्ति तथाभूतानां तेषां प्रीतिपूर्वकं पुष्टिमर्यादानुकूलापरानुरक्तिरीश्वरे सर्वात्मना प्रीतिस्तत्पूर्वकं भजतां सेवतां -- अनेनचेतस्तत्प्रवणं सेवा इति मानसीस्वरूपमुक्तं -- तेषामेव बुद्धियोगं विपाकदशामापन्नं ददाम�� येन ते मां पुरुषोत्तमं उप समीप एव प्राप्ता भवन्ति। इत्थं तेषां निर्गुणमुक्तिर्भावितया सूचिता।
Sridhara Swami
।।10.8।। यथा च विभूतियोगयोर्ज्ञानेन सम्यग्ज्ञानावाप्तिस्तद्दर्शयति -- अहमित्यादिचतुर्भिः। अहं सर्वस्य जगतः प्रभवो भृग्वादिरूपविभूतिद्वारेणोत्पत्तिहेतुः। मत्त एव चास्य सर्वस्यबुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः इत्यादि सर्वं प्रवर्तत इति? एवं मत्वाऽवबुध्य बुधा विवेकिनो भावसमन्विताः प्रीतियुक्ता मां भजन्ते।