Bhagavad Gita Chapter 10 Verse 3 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् | असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ||१०-३||
Transliteration
yo māmajamanādiṃ ca vetti lokamaheśvaram . asammūḍhaḥ sa martyeṣu sarvapāpaiḥ pramucyate ||10-3||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
10.3 He who knows Me as unborn and beginningless, as the great Lord of the worlds, he, among mortals, is undeluded and he is liberated from all sins.
।।10.3।। जो मुझे अजन्मा, अनादि और लोकों के महान् ईश्वर के रूप में जानता है, र्मत्य मनुष्यों में ऐसा संमोहरहित (ज्ञानी) पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Instead of being solely driven by transient goals or external validation, approach work with a deeper sense of purpose and detachment from outcomes, understanding that all actions are part of a larger divine play. This perspective fosters resilience against failures and humility in success, recognizing the impermanence of achievements and aligning one's efforts with a higher calling.
🧘 For Stress & Anxiety
By recognizing your true self as eternal and distinct from the temporary body-mind complex, you can detach from the anxieties and pressures of daily life. This understanding dissolves the delusion of identifying with impermanent roles or possessions, leading to profound inner peace and an unwavering mental fortitude that transcends external stressors.
❤️ In Relationships
See beyond superficial differences and ego clashes by recognizing the divine essence (the unborn, beginningless Self) in every individual. This fosters compassion, empathy, and unconditional love, allowing you to engage in relationships without undue attachment, expectations, or judgments, thereby transcending common relational conflicts.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Realizing your intrinsic connection to the eternal, universal consciousness liberates you from all delusion and suffering, granting profound peace and purpose.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
10.3 यः who? माम् Me? अजम् unborn? अनादिम् beginningless? च and? वेत्ति knows? लोकमहेश्वरम् the great Lord of the worlds? असम्मूढः undeluded? सः he? मर्त्येषु amongst mortals? सर्वपापैः from all sins? प्रमुच्यते is liberated. Commentary As the Supreme Being is the cause of all the worlds? He is beginningless. As He is the source of the gods and the great sages? there is no source for His existence. As He is beginningless He is unborn. He is the great Lord of all the worlds.Asammudhah Undeluded. He who has realised that his own innermost Self is not different from the Supreme Self is an undeluded person. Through the removal of ignorance the delusion which is of the form of mutual superimposition between the Self and the notSelf is also removed. He is freed from all sins done consciously or unconsciously in the three periods of time.The ignorant man removes his sins through the performance of expiatory acts (Prayaschitta) and enjoyment of the results. But he is not completely freed from all sins because he continues to do sinful actions through the force of evil Samskaras or impressions because he has not eradicated ignorance? the root cause of all sins? and its effect? egoism and superimposition or the feeling of I in the physical body. As he dies? swayed by the forces of evil Samskaras? he engages himself in doing sinful actions in the next birth. But the sage of Selfrealisation is completely liberated from,all sins because ignorance? the root cause of all sins? and its effect? viz.? the mistaken notion that the body is the Self on account of mutual superimposition between the Self and the notSelf? is eradicated in toto along with the Samskaras and all the sins. The Samskaras are burnt completely like roasted seeds. Just as burnt seeds cannot germinate? so also the burnt Samskaras cannot generate further actions or future births.For the following reason also? I am the great Lord of the worlds.
Shri Purohit Swami
10.3 He who knows Me as the unborn, without beginning, the Lord of the universe, he, stripped of his delusion, becomes free from all conceivable sin.
Dr. S. Sankaranarayan
10.3. Whosoever knows Me as the unborn and beginningless Absolute Lord of the universe, that person, not deluded among the mortals, is delivered from all sins.
Swami Adidevananda
10.3 He who knows Me as unborn and without a beginning and the great Lord of the worlds - he among the mortals is undeluded and is released from every sin.
Swami Gambirananda
10.3 He who knows Me-the birthless, the beginningless, and the great Lord of the worlds, he, the undeluded one among mortals, becomes freed from all sins.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।10.3।। जो मुझे जानता है यह जानना केवल भावना के प्रवाह में अथवा बुद्धि के विचारों से जानना नहीं है? वरन् यह पूर्ण और वास्तविक आत्मानुभूति है? जो आत्मा के साथ घनिष्ठ तादात्म्य के क्षणों में होती है। आत्मा को किसी दृश्य के समान नहीं किन्तु स्वस्वरूप से इस प्रकार जानना है कि वह अजन्मा? अनादि और सर्वलोकमहेश्वर है। जो लोग वेदान्त दर्शन की प्राचीन परम्परा से कुछ परिचित हैं? उनके लिए उपर्युक्त ये तीन विशेषण अत्यन्त सारगर्भित हैं? जबकि उससे अनभिज्ञ लोगों को ये विशेषण निरर्थक ही प्रतीत होंगे। अनात्म जड़ जगत् परिच्छिन्न है? जहाँ कि प्रत्येक वस्तु? प्राणी या अनुभव अनित्य हैं? अर्थात् समस्त वस्तुएं आदि (जन्म) और अन्त (मत्यु) से युक्त हैं।असीम अनन्त परमात्मा का कभी जन्म नहीं हो सकता? क्योंकि जो उत्पन्न हुआ है? वह परिच्छिन्न है और किसी भी परिच्छिन्न वस्तु में अनन्त तत्त्व कभी अपने अनन्त स्वरूप में व्यक्त नहीं हो सकता। स्थाणु (स्तम्भ) में जब भ्रान्ति से पुरुष (या प्रेत) की प्रतीति होती है? तब पुरुष का नाश (अप्रतीति) हो सकता है? क्योंकि वह उत्पन्न हुआ था। परन्तु? वास्तव में यह नहीं कहा जा सकता कि स्थाणु ने प्रेत को जन्म दिया? अथवा स्तम्भ से प्रेत की उत्पत्ति हुई। स्थाणु तो वहाँ पहले भी था? है और रहेगा। आत्मा नित्य सनातन है? इसलिए वह जन्मरहित है। अन्य वस्तुओं का जन्म? स्थिति और नाश इस आत्मा में ही होता है। तरंगे समुद्र से उत्पन्न होती हैं? परन्तु समुद्र स्वयं अजन्मा है। प्रत्येक तरंग का आदि है? मध्य है और अन्त भी। किन्तु उन सबका सारतत्त्व इन समस्त विकारों से सर्वथा मुक्त है और इसलिए? इस श्लोक में आत्मा को अनादि विशेषण दिया गया है।लोकमहेश्वर लोक शब्द का अर्थ जगत् करने से इस संस्कृत शब्द के व्यापक आशय की उपेक्षा हो जाती है। लोक शब्द जिस धातु से बनता है उसका अर्थ है देखना? अनुभव करना। अत इसका सम्पूर्ण अर्थ होगा अनुभव का क्षेत्र। हमारे दैनिक जीवन में भी इसी अर्थ में लोक शब्द का प्रयोग किया जाता है? जैसे धनवानों का लोक? अपराधियों का लोक? विद्यार्थी लोक? कवियों का लोक आदि। इसलिए? उसके व्यापक अर्थ में लोक शब्द से मात्र भौतिक जगत् ही नहीं? बल्कि भावनाओं एवं विचारों के जगत् का भी बोध होता है।इस प्रकार? मेरा लोक वह है? जो मैं अपने शरीर? मन और बुद्धि के द्वारा अनुभव करता हूँ। यह तो स्पष्ट है कि जब तक मुझे इनका निरन्तर भान नहीं होता तब तक ये अनुभव मेरे नहीं हो सकते। यह चैतन्य तत्त्व? जिसके कारण ही मैं जीता हूँ और जगत् का अनुभव करता हूँ? वास्तव में मेरे लोक का ईश्वर होना ही चाहिए।जो मेरे व्यष्टि के विषय में सत्य है? वही जगत् के समस्त प्राणियों के विषय में भी सत्य है? क्योंकि आत्मा सर्वत्र एक ही है। इस समष्टि लोक का शासक? महान् ईश्वर स्वयं परमात्मा ही हो सकता है। यह लोक महेश्वर शब्द का वास्तविक अर्थ है। ईश्वर कोई निरंकुश एवं क्रूर शासक अथवा आकाश में बैठा कोई सुल्तान नहीं। आत्मा हमारे लोक का ईश्वर ऐसे ही है? जैसे? दिन के समय सूर्य इस बाह्य जगत् का स्वामी है? क्योंकि वही जगत् को प्रकाशित करता है।जो मुझे अजन्मा? अनादि और लोक महेश्वर के रूप में जानता है? वह संमोहरहित हो जाता है। स्थाणु में प्रेत देखकर भयभीत व्यक्ति जैसे ही उस स्थाणु को पहचानता है? वैसे ही वह मोह और भ्रान्ति से मुक्त हो जाता है। हिन्दू धर्म में पाप की कल्पना किसी विकराल अवश्यंभाविता का भयंकर चित्र नहीं है। मनुष्य अपने पापों के लिए दण्डित नहीं? वरन् अपने पापों के द्वारा ही दण्डित होता है। पाप वह स्वअपमानजनक कर्म है? जिसका कारण है मनुष्य को अपने वास्तविक स्वरूप का अज्ञान।जब कोई व्यक्ति अपने शुद्ध आत्मस्वरूप से भटक कर दूर चला जाता है? तब वह जगत् की घटनाओं के साथ तादात्म्य कर सुखदुख का अनुभव करता है। वह जगत् में इस प्रकार व्यवहार करता है? मानो वह एक घृणित मांसपिण्ड ही है? अथवा स्पन्दनशील भावनाओं की गठरी अथवा विचारों का समूह मात्र है। उसका यह व्यवहार अपनी एकमेव अद्वितीय ईश्वरीय? दिव्य प्रतिष्ठा का अपमान ही है। ऐसे कर्म और विचार मनुष्य को निम्न स्तर के भोगों में आसक्त कर बाँध देते हैं? जिसके कारण वह उनसे ऊपर उठकर वास्तविक पूर्णत्व के शिखर तक कभी नहीं पहुँच पाता।आत्मस्वरूप को पहचान कर उसमें दृढ़ निष्ठा प्राप्त कर लेने पर वह व्यक्ति पुन कभी पापकर्म में प्रवृत्त नहीं होता। पापवृत्तियाँ वे विषैले फोड़े हैं? जिनके कारण हम अपनी परिच्छिन्नताओं की पीड़ा और बंधनों के दुख सहते रहते हैं। जिस क्षण हम अपने आत्मस्वरूप को पहचानते हैं कि वह अजन्मा और अनादि है तथा उसका विकारी और विनाशी उपाधियों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है? उस समय हम वह सब कुछ प्राप्त कर लेते हैं जो जीवन में प्राप्तव्य है? और वह सब कुछ जान लेते हैं जो ज्ञातव्य है। ऐसा सम्यक् तत्त्वदर्शी पुरुष स्वयं ही लोकमहेश्वर बन जाता है।निम्न कारण से भी आत्मा लोकमहेश्वर है --
Swami Ramsukhdas
।।10.3।। व्याख्या --'यो मामजमनादि�� च वेत्ति लोकमहेश्वरम्'-- पीछेके श्लोकमें भगवान्के प्रकट होनेको जाननेका विषय नहीं बताया है। इस विषयको तो मनुष्य भी नहीं जानता, पर जितना जाननेसे मनुष्य अपना कल्याण कर ले, उतना तो वह जान ही सकता है। वह जानना अर्थात् मानना यह है कि भगवान् अज अर्थात् जन्मरहित हैं। वे अनादि हैं अर्थात् यह जो काल कहा जाता है, जिसमें आदि-अनादि शब्दोंका प्रयोग होता है, भगवान् उस कालके भी काल हैं। उन कालातीत भगवान्में कालका भी आदि और अन्त हो जाता है। भगवान् सम्पूर्ण लोकोंके महान् ईश्वर हैं अर्थात् स्वर्ग, पृथ्वी और पातालरूप जो त्रिलोकी है तथा उस त्रिलोकीमें जितने प्राणी हैं और उन प्राणियोंपर शासन करनेवाले (अलग-अलग अधिकार-प्राप्त) जितने ईश्वर (मालिक) हैं, उन सब ईश्वरोंके भी महान् ईश्वर भगवान् हैं। इस प्रकार जाननेसे अर्थात् श्रद्धा-विश्वासपूर्वक दृढ़तासे माननेसे मनुष्यको भगवान्के अज, अविनाशी और लोकमहेश्वर होनेमें कभी किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं होता।02'असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते' -- भगवान्को अज, अविनाशी और लोकमहेश्वर जाननेसे मनुष्य पापोंसे मुक्त कैसे होगा? भगवान् जन्मरहित हैं, नाशरहित हैं अर्थात् उनमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता। वे अजन्मा तथा अविनाशी रहते हुए भी सबके महान् ईश्वर हैं। वे सब देशमें रहनेके नाते यहाँ भी हैं, सब समयमें होनेके नाते अभी भी हैं, सबके होनेके नाते मेरे भी हैं और सबके मालिक होनेके नाते मेरे अकेलेके भी मालिक हैं -- इस प्रकार दृढ़तासे मान ले। इसमें सन्देहकी गन्ध भी न रहे। साथ-ही-साथ, यह जो क्षणभङ्गुर संसार है, जिसका प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है और जिसको जिस क्षणमें जिस रूपमें देखा है, उसको दूसरे क्षणमें उस रूपमें दुबारा कोई भी देख नहीं सकता क्योंकि वह दूसरे क्षणमें वैसा रहता ही नहीं -- इस प्रकार संसारको यथार्थरूपसे जान ले। जिसने अपनेसहित सारे संसारके मालिक भगवान्को दृढ़तासे मान लिया है और संसारकी क्षणभङ्गुरताको तत्त्वसे ठीक जान लिया है, उसका संसारमें मैं और 'मेरा'-पन रह ही नहीं सकता प्रत्युत एकमात्र भगवान्में ही अपनापन हो जाता है। तो फिर वह पापोंसे मुक्त नहीं होगा, तो और क्या होगा? ऐसा मूढ़तारहित मनुष्य ही भगवान्को तत्त्वसे अज,अविनाशी और लोकमहेश्वर जानता है और वही सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। उसके क्रियमाण, संचित आदि सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं। मनुष्यको इस वास्तविकताका अनुभव करनेकी आवश्यकता है, केवल तोतेकी तरह सीखनेकी आवश्यकता नहीं। तोतेकी तरह सीखा हुआ ज्ञान पूरा काम नहीं देता। असम्मूढ़ता क्या है? संसार (शरीर) किसीके भी साथ कभी रह नहीं सकता तथा कोई भी संसारके साथ कभी रह नहीं सकता और परमात्मा किसीसे भी कभी अलग हो नहीं सकते और कोई भी परमात्मासे कभी अलग हो नहीं सकता -- यह वास्तविकता है। इस वास्तविकताको न जानना ही सम्मूढ़ता है और इसको यथार्थ जानना ही असम्मूढ़ता है। यह असम्मूढ़ता जिसमें रहती है, वह मनुष्य असम्मूढ़ कहा जाता है। ऐसा असम्मूढ़ पुरुष मेरे सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार रूपको तत्त्वसे जान लेता है, तो उसे मेरी लीला, रहस्य, प्रभाव, ऐश्वर्य आदिमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता। सम्बन्ध --पहले श्लोकमें भगवान्ने जिस परम वचनको सुननेकी आज्ञा दी थी, उसको अब आगेके तीन श्लोकोंमें बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।10.3।। जो मुझे अजन्मा, अनादि और लोकों के महान् ईश्वर के रूप में जानता है, र्मत्य मनुष्यों में ऐसा संमोहरहित (ज्ञानी) पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।10.3।।अनश्चेष्टयिता आदिश्च सर्वस्येत्यनादिः। अजत्वेन सिद्धेरितरस्य।
Sri Anandgiri
।।10.3।।इतश्च कश्चिदेव भगवत्प्रभावं वेत्तीत्याह -- किञ्चेति। कोऽसौ प्रभावो भगवतो यं बहवो न विदुरित्यपेक्षायां पारमार्थिकं प्रभावं तद्धीफलं च कथयति -- यो मामिति। पदद्वयापौनरुक्त्यमाह -- अनादित्वमिति।
Sri Vallabhacharya
।।10.3।।अत एव मन्त्रद्रष्टृभिरप्यनुलभ्यमानप्रभवत्वादहमज एव श्रौतानुभवगम्यः? अन्यत्तु गुणप्रकृतिवियदादि जायते एवमतः तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः [तै.उ.2।1] इत्यादिश्रुतेः। तत्संसृष्टा जीवाश्च हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् [ऋक्सं.8।7।3।1यजुस्सं.23।1] इत्यादिश्रुतेः। अनादिरप्यहमेव मुक्तात्मा अजो भवामि। यद्यपि नचाऽनादिरित्येतदर्थमुक्तमनादिरिति अन्यथा एकार्थवाचकत्वे पृथङ्निरूपणं न कृतं स्यात्। अतएवाधस्ताज्जाता गुणसंसृष्टाः सर्वे ये लोकास्तेषां 2महाश्वरोनियन्ताऽहं इत्येवम्भूतं मां मर्त्येष्वसम्मूढा यो वेत्ति मर्त्येषु स्वेच्छया 2सर्वे रर्थे2 विजातीयविलक्षणं वेत्ति स सर्वपापैः संसारहेतुभूतैः भक्त्युत्पात्ताविरोधिभिः प्रमुच्यत इति तथा ज्ञान तवास्तु इति भावः।
Sridhara Swami
।।10.3।। एवंभूतात्मज्ञाने फलमाह -- यो मामिति। सर्वकारणत्वादेव न विद्यते आदिः कारणं यस्य तमनादिम्। अतएवाजं जन्मशून्यं लोकानां महेश्वरं च मां यो वेत्ति स मनुष्येष्वसंमूढः संमोहरहतिः सन्सर्वपापैः प्रमुच्यते।