Bhagavad Gita Chapter 1 Verse 34 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः | मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ||१-३४||
Transliteration
ācāryāḥ pitaraḥ putrāstathaiva ca pitāmahāḥ . mātulāḥ śvaśurāḥ pautrāḥ śyālāḥ sambandhinastathā ||1-34||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
1.34. Teachers, fathers, sons and also grandfathers, maternal uncles, fathers-in-law, grandsons, brothers-in-law and other relatives,-
।।1.34।।वे लोग गुरुजन, ताऊ, चाचा, पुत्र, पितामह, श्वसुर, पोते, श्यालक तथा अन्य सम्बन्धी हैं।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
This verse highlights how personal relationships (family expectations, mentor loyalty, working with kin) can profoundly influence career choices and professional conduct. It points to potential conflicts of interest or emotional hurdles when professional duty clashes with personal allegiance to colleagues, bosses, or family members within a workplace.
🧘 For Stress & Anxiety
It underscores that conflicts or difficult decisions involving close family and revered figures (like mentors or elders) are a major source of mental stress, anxiety, and emotional burden. The weight of potential harm to loved ones, even in a necessary action, can be mentally debilitating.
❤️ In Relationships
This verse serves as a reminder of the intricate and pervasive web of family and social ties. It illustrates that our deepest emotional attachments can be the source of our greatest challenges, requiring careful navigation of loyalties, duties, and personal feelings when conflict arises among those we cherish.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Our deepest emotional bonds, while foundational, often present our greatest challenges and moral dilemmas, profoundly impacting our decisions and actions when duty calls.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
1.34 आचार्याः teachers? पितरः fathers? पुत्राः sons? तथा thus? एव also? च and? पितामहाः grandfathers? मातुलाः maternal uncles? श्वशुराः fathersinlaw? पौत्राः grandsons? श्यालाः brothersinlaw? सम्बन्धिनः relatives? तथा as well as.No Commentary.
Shri Purohit Swami
1.34 Teachers, fathers and grandfathers, sons and grandsons, uncles, father-in-law, brothers-in-law and other relatives.
Dr. S. Sankaranarayan
1.34. O slayer-of-Mandhu (Krsna)! I do not desire to slay these men-even though they slay me-even for the sake of the kingdom of the three worlds-what to speak for the sake of the [mere] earth.
Swami Adidevananda
1.34 Teachers, fathers, sons and also grandfathers, uncles, fathers-in-law and grandsons, brothers-in-law and other kinsmen---
Swami Gambirananda
1.32 1.34 O Govinda! What need do we have of a kingdom, or what (need) of enjoyments and livelihood? Those for whom kingdom, enjoyments and pleasures ae desired by us, viz teachers, uncles, fathers-in-law, grandsons, brothers-in-law as also relatives-those very ones stand arrayed for battle risking their lives and wealth.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।1.34।। एक ही क्षत्रिय परिवार के लोगों के बीच होने जा रहे इस गृहयुद्ध के विरुद्ध अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण को अन्य तर्क भी देता है। भावाविष्ट अर्जुन अपने कायरतापूर्ण पलायन के लिये अनेक तर्क देकर अपने विचार को उचित सिद्ध करना चाहता है जबकि भाग्य से प्राप्त कर्तव्य करने से वास्तव में वह दूर भाग रहा है।उसने जो कुछ पहले कहा था उसी को वह दोहराता रहता है क्योंकि श्रीकृष्ण अपने गूढ़ मौन द्वारा उसके तर्क स्वीकार नहीं कर रहे थे। भगवान् के अधरों की तीक्ष्ण मुस्कान अर्जुन को लज्जित कर रही थी। वह अपने मित्र एवं सारथि श्रीकृष्ण की अपने विचारों के प्रति स्वीकृति और सहमति चाहता था परन्तु न तो उनकी दृष्टि के भाव से और न ही उनके शब्दों से उसे इच्छित सहमति मिल रही थी।
Swami Ramsukhdas
।।1.34।। व्याख्या --[भगवान् आगे सोलहवें अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें कहेंगे कि काम, क्रोध और लोभ--ये तीनों ही नरकके द्वार हैं। वास्तवमें एक कामके ही ये तीन रूप हैं। ये तीनों सांसारिक वस्तुओं, व्यक्तियों आदिको महत्त्व देनेसे पैदा होते हैं। काम अर्थात् कामनाकी दो तरहकी क्रियाएँ होती हैं--इष्टकी प्राप्ति और अनिष्टकी निवृत्ति। इनमेंसे इष्टकी प्राप्ति भी दो तरहकी होती है --संग्रह करना और सुख भोगना। संग्रहकी इच्छाका नाम 'लोभ' है और सुखभोगकी इच्छाका नाम 'काम' है। अनिष्टकी निवृत्तिमें बाधा पड़नेपर 'क्रोध' आता है अर्थात् भोगोंकी, संग्रहकी प्राप्तिमें बाधा देनेवालोंपर अथवा ह��ारा अनिष्ट करनेवालोंपर, हमारे शरीरका नाश करनेवालोंपर क्रोध आता है, जिससे अनिष्ट करनेवालोंका नाश करनेकी क्रिया होती है। इससे सिद्ध हुआ कि युद्धमें मनुष्यकी दो तरहसे ही प्रवृत्ति होती है --अनिष्टकी निवृत्तिके लिये अर्थात् अपने 'क्रोध' को सफल बनानेके लिये और इष्टकी प्राप्तिके लिये अर्थात् 'लोभ' की पूर्तिके लिये। परन्तु अर्जुन यहाँ इन दोनों ही बातोंका निषेध कर रहे हैं] 'आचार्याः पितरः৷৷. किं नु महीकृते'-- अगर हमारे ये कुटुम्बीजन अपनी अनिष्ट-निवृत्तिके लिये क्रोधमें आकर मेरेपर प्रहार करके मेरा वध भी करना चाहें, तो भी मैं अपनी अनिष्ट-निवृत्तिके लिये क्रोधमें आकर इनको मारना नहीं चाहता। अगर ये अपनी इष्टप्राप्तिके लिये राज्यके लोभमें आकर मेरेको मारना चाहें, तो भी मैं अपनी इष्ट-प्राप्तिके लिये लोभमें आकर इनको मारना नहीं चाहता। तात्पर्य यह हुआ कि क्रोध और लोभमें आकर मेरेको नरकोंका दरवाजा मोल नहीं लेना है। यहाँ दो बार 'अपि' पदका प्रयोग करनेमें अर्जुनका आशय यह है कि मैं इनके स्वार्थमें बाधा ही नहीं देता तो ये मुझे मारेंगे ही क्यों? पर मान लो कि 'पहले इसने हमारे स्वार्थमें बाधा दी है' ऐसे विचारसे ये मेरे शरीरका नाश करनेमें प्रवृत्त हो जायँ, तो भी (घ्नतोऽपि) मैं इनको मारना नहीं चाहता। दूसरी बात, इनको मारनेसे मुझे त्रिलोकीका राज्य मिल जाय, यह तो सम्भावना ही नहीं है, पर मान लो कि इनको मारनेसे मुझे त्रिलोकीका राज्य मिलता हो तो भी (अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः) मैं इनको मारना नहीं चाहता। 'मधूसूदन'(टिप्पणी प0 24.2) सम्बोधनका तात्पर्य है कि आप तो दैत्योंको मारनेवाले हैं, पर ये द्रोण आदि आचार्य और भीष्म आदि पितामह दैत्य थोड़े ही हैं, जिससे मैं इनको मारनेकी इच्छा करूँ? ये तो हमारे अत्यन्त नजदीकके खास सम्बन्धी हैं। 'आचार्याः'-- इन कुटुम्बियोंमें जिन द्रोणाचार्य आदिसे हमारा विद्याका, हितका सम्बन्ध है, ऐसे पूज्य आचार्योंकी मेरेको सेवा करनी चाहिये कि उनके साथ लड़ाई करनी चाहिये? आचार्यके चरणोंमें तो अपने-आपको, अपने प्राणोंको भी समर्पित कर देना चाहिये। यही हमारे लिये उचित है। 'पितरः'-- शरीरके सम्बन्धको लेकर जो पितालोग हैं, उनका ही तो रूप यह हमारा शरीर है। शरीरसे उनके स्वरूप होकर हम क्रोध या लोभमें आकर अपने उन पिताओंको कैसे मारें? 'पुत्राः'-- हमारे और हमारे भाइयोंके जो पुत्र हैं, वे तो सर्वथा पालन करनेयोग्य हैं। वे हमारे विपरीत कोई क्रिया भी कर बैठें, तो भी उनका पालन करना ही हमारा धर्म है। 'पितामहाः'-- ऐसे ही जो पितामह हैं, वे जब हमारे पिताजीके भी पूज्य हैं, तब हमारे लिये तो परमपूज्य हैं ही। वे हमारी ताड़ना कर सकते हैं, हमें मार भी सकते हैं। पर हमारी तो ऐसी ही चेष्टा होनी चाहिये, जिससे उनको किसी तरहका दुःख न हो, कष्ट न हो, प्रत्युत उनको सुख हो, आराम हो, उनकी सेवा हो। 'मातुलाः'-- हमारे जो मामालोग हैं, वे हमारा पालन-पोषण करनेवाली माताओंके ही भाई हैं। अतः वे माताओंके समान ही पूज्य होने चाहिये। 'श्वशुराः'-- ये जो हमारे ससुर हैं, ये मेरी और मेरे भाइयोंकी पत्नियोंके पूज्य पिताजी हैं। अतः ये हमारे लिये भी पिताके ही तुल्य हैं। इनको मैं कैसे मारना चाहूँ? 'पौत्राः'-- हमारे पुत्रोंके जो पुत्र हैं, वे तो पुत्रोंसे भी अधिक पालन-पोषण करनेयोग्य हैं। 'श्यालाः'-- हमारे जो साले हैं, वे भी हमलोगोंकी पत्नियोंके प्यारे भैया हैं। उनको भी कैसे मारा जाय! 'सम्बन्धिनः'-- ये जितने सम्बन्धी दीख रहे हैं और इनके अतिरिक्त जितने भी सम्बन्धी हैं, उनका पालन-पोषण, सेवा करनी चाहिये कि उनको मारना चाहिये? इनको मारनेसे अगर हमें त्रिलोकीका राज्य भी मिल जाय, तो भी क्या इनको मारना उचित है? इनको मारना तो सर्वथा अनुचित है।सम्बन्ध-- पूर्वश्लोकमें अर्जुनने स्वजनोंको न मारनेमें दो हेतु बताये। अब परिणामकी दृष्टिसे भी स्वजनोंको न मारना सिद्ध करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।1.34।।वे लोग गुरुजन, ताऊ, चाचा, पुत्र, पितामह, श्वसुर, पोते, श्यालक तथा अन्य सम्बन्धी हैं।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।1.34।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
Sri Anandgiri
।।1.34।। मातुला इति। श्याला भार्याणां भ्रातरो धृष्टद्युम्नप्रभृतयः। वध्येष्वपि स्वराज्यपरिपन्थिष्वाततायिषु कृपाबुद्ध्या स्वधर्माद्युद्धात्पूर्वोक्तमोहादिवशात्प्रच्युतिं प्रदर्शयति एतानिति। जिघांसन्तं जिघांसीयात् इति न्यायादेतेषां हिंसा न दोषायेत्याशङ्क्याह घ्नतोऽपीति।
Sri Vallabhacharya
।।1.34 1.37।।Sri Vallabhacharya did not comment on this sloka.
Sridhara Swami
।।1.34।। ननु यदि कृपया त्वमेतान्न हंसि त्वामेते राज्यलोभेन हनिष्यन्त्येव। अतस्त्वमेवैतान्हत्वा राज्यं भुङ्क्ष्व तत्राह एतान्नेति सार्धेन। घ्नतोऽप्यस्मान्घातयतोऽप्येतांस्त्रैलोक्यराज्यस्यापि हेतोस्तत्प्राप्त्यर्थमप्यहं हन्तुं नेच्छामि। किं पुनर्महीमात्रप्राप्त्यर्थमित्यर्थः।