Bhagavad Gita Chapter 1 Verse 28 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Emotional Overwhelm

Sanskrit Shloka (Original)

कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् | अर्जुन उवाच | दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ||१-२८||

Transliteration

kṛpayā parayāviṣṭo viṣīdannidamabravīt . arjuna uvāca . dṛṣṭvemaṃ svajanaṃ kṛṣṇa yuyutsuṃ samupasthitam ||1-28||

Word-by-Word Meaning

दृष्ट्वाhaving seen
इमम्these
स्वजनम्kinsmen
कृष्णO Krishna (the dark one
युयुत्सुम्eager to fight
समुपस्थितम्arrayed.No Commentary.

📖 Translation

English

1.28. Arjuna said Seeing these, my kinsmen, O krishna, arrayed, eager to fight.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।1.28 1.29।।अर्जुन ने कहा -- हे कृष्ण ! युद्ध की इच्छा रखकर उपस्थित हुए इन स्वजनों को देखकर मेरे अंग शिथिल हुये जाते हैं, मुख भी सूख रहा है और मेरे शरीर में कम्प तथा रोमांच हो रहा है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Navigating professional situations where personal relationships or loyalties create emotional conflict, making objective decision-making challenging, or facing the prospect of working against people you know.

🧘 For Stress & Anxiety

Recognizing the immediate emotional shock and overwhelm that can arise when confronting difficult truths or seemingly insurmountable challenges, especially when loved ones are involved, leading to distress and potential paralysis.

❤️ In Relationships

Understanding the deep emotional impact of seeing loved ones on opposing sides, whether in literal conflict or metaphorical disagreements, and the pain of fractured bonds when circumstances force divisions.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

The initial sight of a daunting challenge, especially one involving personal connections, can trigger profound emotional distress and a crisis of resolve, setting the stage for deeper inquiry into one's true duty.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

1.28 दृष्ट्वा having seen? इमम् these? स्वजनम् kinsmen? कृष्ण O Krishna (the dark one? He who attracts)? युयुत्सुम् eager to fight? समुपस्थितम् arrayed.No Commentary.

Shri Purohit Swami

1.28 And his heart melted with pity and sadly he spoke: O my Lord! When I see all these, my own people, thirsting for battle,

Dr. S. Sankaranarayan

1.28. Shivering and horripilation arise in my body; the Gandiva (the bow) slips from my hand and my skin also burns all over.

Swami Adidevananda

1.28 He was filled with deep compassion and said these words in despair :...Arjuna said:...O Krsna, when I look on these, my kinsmen present here, eager for battle,

Swami Gambirananda

1.28 Arjuna said O Krsna, seeing these relatives and friends who have assembled here with the intention of fighting, my limbs become languid and my mouth becomes completely dry.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।1.28।। मनसंभ्रम के कारण मानसिक रोगी के शरीर में उत्पन्न होने वाले लक्षणों को यहाँ विस्तार से बताया गया है। जिसे संजय ने करुणा कहा थाउसकी वास्तविकता स्वयं अर्जुन के शब्दों से स्पष्ट ज्ञात होती है। वह कहता है इन स्वजनों को देखकर . मेरे अंग कांपते हैं. इत्यादि।आधुनिक मनोविज्ञान में एक व्याकुल असन्तुलित रोगी व्यक्ति के उपर्युक्त लक्षणों वाले रोग का नाम चिन्ताजनित नैराश्य की स्थिति दिया गया है।

Swami Ramsukhdas

।।1.28।। व्याख्या--'दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्'--अर्जुनको  'कृष्ण' नाम बहुत प्रिय था। यह सम्बोधन गीतामें नौ बार आया है। भगवान् श्रीकृष्णके लिये दूसरा कोई सम्बोधन इतनी बार नहीं आया है। ऐसे ही भगवान्को अर्जुनका  'पार्थ'  नाम बहुत प्यारा था। इसलिये भगवान् और अर्जुन आपसकी बोलचालमें ये नाम लिया करते थे और यह बात लोगोंमें भी प्रसिद्ध थी। इसी दृष्टिसे सञ्जयने गीताके अन्तमें  'कृष्ण' और 'पार्थ'  नामका उल्लेख किया है  'यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः'  (18। 78)। धृतराष्ट्रने पहले 'समवेता युयुत्सवः'  कहा था और यहाँ अर्जुनने भी  'युयुत्सुं समुपस्थितम्' कहा है; परन्तु दोनोंकी दृष्टियोंमें बड़ा अन्तर है। धृतराष्ट्रकी दृष्टिमें तो दुर्योधन आदि मेरे पुत्र हैं और युधिष्ठिर आदि पाण्डुके पुत्र हैं--ऐसा भेद है; अतः धृतराष्ट्रने वहाँ  'मामकाः' और  'पाण्डवाः'  कहा है। परन्तु अर्जुनकी दृष्टिमें यह भेद नहीं है, अतः अर्जुनने यहाँ 'स्वजनम्' कहा है, जिसमें दोनों पक्षके लोग आ जाते हैं। तात्पर्य है कि धृतराष्ट्रको तो युद्धमें अपने पुत्रोंके मरनेकी आशंकासे भय है, शोक है; परन्तु अर्जुनको दोनों ओरके कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे शोक हो रहा है कि किसी भी तरफका कोई भी मरे, पर वह है तो हमारा ही कुटुम्बी। अबतक 'दृष्ट्वा' पद तीन बार आया है  'दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकम्' (1। 2) 'व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्' (1। 20) और यहाँ 'दृष्ट्वेमं स्वजनम्' (1। 28)। इन तीनोंका तात्पर्य है कि दुर्योधनका देखना तो एक तरहका ही रहा अर्थात् दुर्योधनका तो युद्धका ही एक भाव रहा; परन्तु अर्जुनका देखना दो तरहका हुआ। पहले तो अर्जुन धृतराष्ट्रके पुत्रोंको देखकर वीरतामें आकर युद्धके लिये धनुष उठाकर खड़े हो जाते हैं और अब स्वजनोंको देखकर कायरतासे आविष्ट हो रहे हैं, युद्धसे उपरत हो रहे हैं और उनके हाथसे धनुष गिर रहा है।  'सीदन्ति मम गात्राणि ৷৷. भ्रमतीव च मे मनः'--  अर्जुनके मनमें युद्धके भावी परिणामको लेकर चिन्ता हो रही है, दुःख हो रहा है। उस चिन्ता, दुःखका असर अर्जुनके सारे शरीरपर पड़ रहा है। उसी असरको अर्जुन स्पष्ट शब्दोंमें कह रहे हैं कि मेरे शरीरका हाथ, पैर, मुख आदि एक-एक अङ्ग (अवयव) शिथिल हो रहा है! मुख सूखता जा रहा है। जिससे बोलना भी कठिन हो रहा है! सारा शरीर थर-थर काँप रहा है! शरीरके सभी रोंगटे खड़े हो रहे हैं अर्थात् सारा शरीर रोमाञ्चित हो रहा है! जिस गाण्डीव धनुषकी प्रत्यञ्चाकी टङ्कारसे शत्रु भयभीत हो जाते हैं वही गाण्डीव धनुष आज मेरे हाथसे गिर रहा है! त्वचामें--सारे शरीरमें जलन हो रही है  (टिप्पणी प0 22.1) । मेरा मन भ्रमित हो रहा है अर्थात् मेरेको क्या करना चाहिये--यह भी नहीं सूझ रहा है! यहाँ युद्धभूमिमें रथपर खड़े रहनेमें भी मैं असमर्थ हो रहा हूँ! ऐसा लगता है कि मैं मूर्च्छित होकर गिर पड़ूँगा! ऐसे अनर्थकारक युद्धमें खड़ा रहना भी एक पाप मालूम दे रहा है।  सम्बन्ध--  पूर्वश्लोकमें अपने शरीरके शोकजनित आठ चिह्नोंका वर्णन करके अब अर्जुन भावी परिणामके सूचक शकुनोंकी दृष्टिसे युद्ध करनेका अनौचित्य बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।1.28 1.29।।अर्जुन ने कहा -- हे कृष्ण ! युद्ध की इच्छा रखकर उपस्थित हुए इन स्वजनों को देखकर मेरे अंग शिथिल हुये जाते हैं, मुख भी सूख रहा है और मेरे शरीर में कम्प तथा रोमांच हो रहा है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।1.28।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.

Sri Anandgiri

।।1.28।।तदेवेदंशब्दवाच्यं वचनमुदाहरति  दृष्ट्वेति।  आत्मीयं बन्धुवर्गं युद्धेच्छया युद्धभूमावुपस्थितमुपलभ्य शोकप्रवृत्तिं दर्शयति  सीदन्तीति।  देवांशस्यैवार्जुनस्यानात्मविदः स्वपरदेहेष्वात्मानात्मीयाभिमानवतस्तत्प्रियस्य युद्धारम्भे तन्मृत्युप्रसङ्गदर्शिनः शोको महानासीदित्यर्थः।

Sri Vallabhacharya

।।1.28 1.30।।सीदन्ति इत्युपक्रम्यभ्रमतीव च मे मनः इत्यन्तं देहधर्माभिमानेन विषयदर्शनपूर्वकं स्वस्याश्रयो निवेदयतिनिमित्तानि इत्यादिना।

Sridhara Swami

।।1.28।।  किमब्रवीदित्यपेक्षायामाह  दृष्ट्वेममित्यादि  यावदध्यायसमाप्ति। हे कृष्ण योद्धुमिच्छन्तं पुरतः सम्यगवस्थितमिमं बन्धुजनं दृष्ट्वा मदीयानि गात्राणि करचरणादीनि सीदन्ति विशीर्यन्ते। किंच मुखं परि समंताच्छुष्यति निर्द्रवीभवति।

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