Bhagavad Gita Chapter 1 Verse 2 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
सञ्जय उवाच | दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा | आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ||१-२||
Transliteration
sañjaya uvāca . dṛṣṭvā tu pāṇḍavānīkaṃ vyūḍhaṃ duryodhanastadā . ācāryamupasaṃgamya rājā vacanamabravīt ||1-2||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
1.2. Sanjaya said Having seen the army of the Pandavas drawn up in battle-array, King Duryodhana then approached his teacher (Drona) and spoke these words.
।।1.2।।संजय ने कहा -- पाण्डव-सैन्य की व्यूह रचना देखकर राजा दुर्योधन ने आचार्य द्रोण के पास जाकर ये वचन कहे।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
When facing a significant project or competitive challenge, first take time to thoroughly observe and assess the situation (the 'battle-array' of facts, resources, and competitors). Then, proactively seek counsel from experienced mentors or leaders before formulating your strategy or making critical moves.
🧘 For Stress & Anxiety
Instead of being overwhelmed by daunting challenges, acknowledge the 'drawn up' difficulties you face. Rather than panicking or isolating yourself, approach a trusted guide, therapist, or spiritual mentor to process your observations, gain perspective, and begin strategizing your response.
❤️ In Relationships
In moments of conflict or significant relational dynamics, observe the situation and understand the other party's position before reacting. Seek advice from a wise, neutral third party or trusted elder to gain clarity and approach the conversation or resolution with a more informed and considered perspective.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Before reacting to significant challenges, observe the situation carefully and seek counsel from trusted mentors.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
1.2 दृष्ट्वा having seen? तु indeed? पाण्डवानीकम् the army of the Pandavas? व्यूढम् drawn up in battlearray? दुर्योधनः Duryodhana? तदा then? आचार्यम् the teacher? उपसङ्गम्य having approached? राजा the king? वचनम् speech? अब्रवीत् said.No Commentary.
Shri Purohit Swami
1.2 Sanjaya replied: "The Prince Duryodhana, when he saw the army of the Pandavas paraded, approached his preceptor Guru Drona and spoke as follows:
Dr. S. Sankaranarayan
1.2. Sanjaya said Seeing the army of the sons of Pandu, marshalled in the military array, the prince Duryodhana approached the teacher (Drona) and spoke at that time, these words:
Swami Adidevananda
1.2 Sanjaya said King Duryodhana, on seeing the Pandava army in battle array, approached his teacher Drona and said these words:
Swami Gambirananda
1.2 Sanjaya said But then, seeing the army of the Pandavas in battle array, King Duryodhana approached the teacher (Drona) and uttered a speech:
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।1.2।। इस श्लोक से आगे संजय ने कुरुक्षेत्र में जो कुछ देखा और सुना उसका वर्णन है। अपनी सेना की अपेक्षा पाण्डवों की सेना संख्या में अत्यन्त न्यून होने पर भी जब दुर्योधन ने उसे देखा तब उस अत्याचारी का आत्मविश्वास कुछ टूटने लगा। जैसे कोई छोटा बालक भयभीत होकर अपने मातापिता के पास दौड़ता है ठीक उसी प्रकार विचलित दुर्योधन अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास पहुँचता है। कोई कर्म करते हुये यदि हमारा उद्देश्य पाप और अन्याय से पूर्ण होता है तो अनेक साधनों से सुसम्पन्न होते हुए भी हमारे मन में निश्चय ही चिन्ता अशान्ति और विक्षेप उत्पन्न होते हैं। सभी अत्याचारी और तानाशाही प्रवृत्ति के लोगों की यही मनस्थिति होती है।
Swami Ramsukhdas
।।1.2।। व्याख्या-- 'तदा'-- जिस समय दोनों सेनाएँ युद्धके लिये खड़ी हुई थीं, उस समयकी बात सञ्जय यहाँ 'तदा' पदसे कहते हैं। कारण कि धृतराष्ट्रका प्रश्न 'युद्धकी इच्छावाले मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया'-- इस विषयको सुननेके लिये ही है। 'तु'--धृतराष्ट्रने अपने और पाण्डुके पुत्रोंके विषयमें पूछा है। अतः सञ्जय भी पहले धृतराष्ट्रके पुत्रों की बात बतानेके लिये यहाँ 'तु' पदका प्रयोग करते हैं।'दृष्ट्वा (टिप्पणी प0 4.1) पाण्डवानीकं व्यूढम्'-- पाण्डवोंकी वज्रव्यूह-से खड़ी सेनाको देखनेका तात्पर्य है कि पाण्डवोंकी सेना बड़ी ही सुचारुरूपसे और एक ही भावसे खड़ी थी अर्थात् उनके सैनिकोंमें दो भाव नहीं थे, मतभेद नहीं था (टिप्पणी प0 4.2) । उनके पक्षमें धर्म और भगवान श्रीकृष्ण थे। जिसके पक्षमें धर्म और भगवान् होते हैं, उसका दूसरोंपर बड़ा असर पड़ता है। इसलिये संख्यामें कम होनेपर भी पाण्डवोंकी सेनाका तेज (प्रभाव) था और उसका दूसरोंपर बड़ा असर पड़ता था। अतः पाण्डव-सेनाका दुर्योधनपर भी बड़ा असर पड़ा, जिससे वह द्रोणाचार्यके पास जाकर नीतियुक्त गंभीर वचन बोलता है।'राजा दुर्योधनः'-- दुर्योधनको राजा कहनेका तात्पर्य है कि धृतराष्ट्रका सबसे अधिक अपनापन (मोह) दुर्योधनमें ही था। परम्पराकी दृष्टिसे भी युवराज दुर्योधन ही था। राज्यके सब कार्योंकी देखभाल दुर्योधन ही करता था। धृतराष्ट्र तो नाममात्रके राजा थे। युद्ध होनेमें भी मुख्य हेतु दुर्योधन ही था। इन सभी कारणोंसे सञ्जयने दुर्योधनके लिये 'राजा' शब्दका प्रयोग किया है। 'आचार्यमुपसङ्गम्य'-- द्रोणाचार्यके पास जानेमें मुख्यतः तीन कारण मालूम देते हैं-- (1) अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये अर्थात् द्रोणाचार्यके भीतर पाण्डवोंके प्रति द्वेष पैदा करके उनको अपने पक्षमें विशेषतासे करनेके लिये दुर्योधन द्रोणाचार्यके पास गया। (2) व्यवहारमें गुरुके नाते आदर देनेके लिये भी द्रोणाचार्यके पास जाना उचित था। (3) मुख्य व्यक्तिका सेनामें यथास्थान खड़े रहना बहुत आवश्यक होता है, अन्यथा व्यवस्था बिगड़ जाती है। इसलिये दुर्योधनका द्रोणाचार्यके पास खुद जाना उचित ही था।यहाँ शङ्का हो सकती है कि दुर्योधनको तो पितामह भीष्मके पास जाना चाहिये था, जो कि सेनापति थे। पर दुर्योधन गुरु द्रोणाचार्यके पास ही क्यों गया? इसका समाधान यह है कि द्रोण और भीष्म-- दोनों उभय-पक्षपाती थे अर्थात् वे कौरव और पाण्डव--दोनोंका ही पक्ष रखते थे। उन दोनोंमें भी द्रोणाचार्यको ज्यादा राजी करना था; क्योंकि द्रोणाचार्यके साथ दुर्योधनका गुरुके नाते तो स्नेह था, पर कुटुम्बके नाते स्नेह नहीं था; और अर्जुनपर द्रोणाचार्यकी विशेष कृपा थी। अतः उनको राजी करनेके लिये दुर्योधनका उनके पास जाना ही उचित था। व्यवहारमें भी यह देखा जाता है कि जिसके साथ स्नेह नहीं है, उससे अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये मनुष्य उसको ज्यादा आदर देकर राजी करता है।दुर्योधनके मनमें यह विश्वास था कि भीष्मजी तो हमारे दादाजी ही है; अतः उनके पास न जाऊँ तो भी कोई बात नहीं है। न जानेसे अगर वे नाराज भी हो जायँगे तो मैं किसी तरहसे उनको राजी कर लूँगा। कारण कि पितामह भीष्मके साथ दुर्योधनका कौटुम्बिक सम्बन्ध और स्नेह था ही, भीष्मका भी उसके साथ कौटुम्बिक सम्बन्ध और स्नेह था। इसलिये भीष्मजीने दुर्योधनको राजी करनेके लिये जोरसे शङ्ख बजाया है (1। 12)।'वचनमब्रवीत्'--यहाँ 'अब्रवीत्' कहना ही पर्याप्त था; क्योंकि 'अब्रवीत्' क्रियाके अन्तर्गत ही 'वचनम्'आ जाता है अर्थात् दुर्योधन बोलेगा, तो वचन ही बोलेगा। इसलिये यहाँ 'वचनम्' शब्दकी आवश्यकता नहीं थी। फिर भी 'वचनम्' शब्द देनेका तात्पर्य है कि दुर्योधन नीतियुक्त गम्भीर वचन बोलता है, जिससे द्रोणाचार्यके मनमें पाण्डवोंके प्रति द्वेष पैदा हो जाय, और वे हमारे ही पक्षमें रहते हुए ठीक तरहसे युद्ध करें। जिससे हमारी विजय हो जाय हमारा स्वार्थ सिद्ध हो जाय।सम्बन्ध--द्रोणाचार्य के पास जाकर दुर्योधन क्या वचन बोला--इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।1.2।।संजय ने कहा -- पाण्डव-सैन्य की व्यूह रचना देखकर राजा दुर्योधन ने आचार्य द्रोण के पास जाकर ये वचन कहे।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।1.2।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
Sri Anandgiri
।।1.2।।किमस्मदीयं प्रबलं बलं प्रतिलभ्य धीरपुरुषैर्भीष्मादिभिरधिष्ठितं परेषां भयमाविरभूत् यद्वा पक्षद्वयहिंसानिमित्ताधर्मभयमासीद्येनैते युद्धादुपरमेरन्नित्येवं पुत्रपरवशस्य पुत्रस्नेहाभिनिविष्टस्य धृतराष्ट्रस्य प्रश्ने संजयस्य प्रतिवचनं दृष्ट्वेत्यादि। पाण्डवानां भयप्रसङ्गो नास्तीत्येतत्तुशब्देन द्योत्यते प्रत्युत दुर्योधनस्यैव राज्ञो भयं प्रभूतं प्रादुर्बभूव। पाण्डवानां पाण्डुसुतानां युधिष्ठिरादीनामनीकं सैन्यं धृष्टद्युम्नादिभिरतिधृष्टैर्व्यूहाधिष्ठितं दृष्ट्वा प्रत्यक्षेण प्रतीत्य त्रस्तहृदयो दुर्योधनो राजा तदा तस्यां संग्रामोद्योगावस्थायामाचार्यं द्रोणनामानमात्मनः शिक्षितारं रक्षितारं च श्लाघयन्नुपसंगम्य तदीयं समीपं विनयेन प्राप्य भयोद्विग्नहृदयत्वेऽपि तेजस्वित्वादेव वचनमर्थसहितं वाक्यमुक्तवानित्यर्थः।
Sri Vallabhacharya
।।1.2 1.11।।दुर्योधनोऽपि वृकोदरादिभी रक्षितं पाण्डवानां बलं भीष्माभिरक्षितं स्वीयं च बलं विलोक्य आत्मजविजये तद्बलस्य पर्याप्ततां आत्मबलस्य तद्बिजयेऽपर्याप्ततां च आचार्ये निवेद्यान्तरेव विष्ण्णोऽभूत्।
Sridhara Swami
।।1.2।। दृष्ट्वेति। पाण्डवानामनीकं सैन्यं व्यूढं व्यूहरचनया व्यवस्थितं दृष्ट्वा द्रोणाचार्यसमीपं गत्वा राजा दुर्योधनो वक्ष्यमाणं वाक्यमुवाच।