Bhagavad Gita Chapter 1 Verse 14 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ | माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः ||१-१४||
Transliteration
tataḥ śvetairhayairyukte mahati syandane sthitau . mādhavaḥ pāṇḍavaścaiva divyau śaṅkhau pradadhmatuḥ ||1-14||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
1.14. Then, also, Madhava (Krishna) and the son of Pandu (Arjuna), seated in the magnificent chariot, yoked with white horses, blew divine conches.
।।1.14।।इसके उपरान्त श्वेत अश्वों से युक्त भव्य रथ में बैठे हुये माधव (श्रीकृष्ण) और पाण्डुपुत्र अर्जुन ने भी अपने दिव्य शंख बजाये।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Before launching a significant project or career pivot, ensure you have the best resources (metaphorical 'magnificent chariot' and 'white horses'), a clear strategy, and wise counsel. Make a clear, public declaration of your intent, signaling readiness and commitment to your goals.
🧘 For Stress & Anxiety
When facing an overwhelming challenge, ground yourself by ensuring your personal 'chariot' (your mental state, resources, and support system) is strong and well-equipped. Seek guidance from trusted mentors or inner wisdom, and take decisive, purposeful action to move past anxiety and into confident engagement.
❤️ In Relationships
Cultivate strong, collaborative partnerships (like Krishna and Arjuna) built on mutual trust, shared vision, and complementary strengths. Clearly communicate intentions, make joint declarations of commitment, and prepare to face challenges together, presenting a unified front.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“With divine guidance, robust preparation, and a decisive declaration, you are empowered to confidently face any challenge and embark on your chosen path.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
1.14 ततः then? श्वेतैः (with) white? हयैः horses? युक्ते yoked? महति magnificent? स्यन्दने in the chariot? स्थितौ seated? माधवः Madhava? पाण्डवः Pandava? the son of Pandu? च and? एव also? दिव्यौ divine? शङ्खौ conches? प्रदध्मतुः blew.No Commentary.
Shri Purohit Swami
1.14 Then seated in their spacious war chariot, yoked with white horses, Lord Shri Krishna and Arjuna sounded their divine shells.
Dr. S. Sankaranarayan
1.14. Then, mounted on mighty chariot, yoked with white horses, Madhava (Krsna) and the son of Pandu (Arjuna) blew their heavenly conch-shells;
Swami Adidevananda
1.14 Then Sri Krsna and Arjuna, stationed in their great chariot yoked with white horses, blew their divine conchs.
Swami Gambirananda
1.14 Then, Madhava (Krsna) and the son of Pandu (Arjuna), stationed in their magnificent chariot with white horses yoked to it, loudly blew their divine conchs.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।1.14।। तथ्य अत्यन्त साधारण है कि कौरवों की शंखध्वनि का उत्तर भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन ने शंखनाद करके दिया परन्तु संजय ने जिस सुन्दरता और उदारता के साथ इसका वर्णन किया है वह इस बात का स्पष्ट सूचक है कि उसकी सहानुभूति किस पक्ष के साथ थी। वह कहता है श्वेत अश्वों से युक्त भव्य रथ में बैठे माधव और अर्जुन ने अपने दिव्य शंख बजाये। इस वर्णन से ज्ञात होता है कि संजय के मन में कहीं कोई आशा अटकी है कि संभवत दोनों पक्षों के शंखनाद के वर्णनों में विरोध देखकर इस समय भी धृतराष्ट्र अपने पुत्रों को युद्ध से विरत कर लें।
Swami Ramsukhdas
।।1.14।। व्याख्या--'ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते'-- चित्ररथ गन्धर्वने अर्जुनको सौ दिव्य घोड़े दिये थे। इन घोड़ोंमें यह विशेषता थी कि इनमेंसे युद्धमें कितने ही घोड़े क्यों न मारे जायँ, पर ये संख्यामें सौ-के-सौ ही बने रहते थे, कम नहीं होते थे। ये पृथ्वी, स्वर्ग आदि सभी स्थानोंमें जा सकते थे। इन्हीं सौ घोड़ोंमेंसे सुन्दर और सुशिक्षित चार सफेद घोड़े अर्जुनके रथमें जुते हुए थे। 'महति स्यन्दने स्थितौ'--यज्ञोंमें आहुतिरूपसे दिये गये घीको खाते-खाते अग्निको अजीर्ण हो गया था। इसीलिये अग्निदेव खाण्डववनकी विलक्षण-विलक्षण जड़ी0-बूटियाँ खाकर (जलाकर) अपना अजीर्ण दूर करना चाहते थे। परन्तु देवताओंके द्वारा खाण्डववनकी रक्षा की जानेके कारण अग्निदेव अपने कार्यमें सफल नहीं हो पाते थे। वे जब-जब खाण्डववनको जलाते, तब-तब इन्द्र वर्षा करके उसको (अग्निको) बुझा देते। अन्तमें अर्जुनकी सहायतासे अग्निने उस पूरे वनको जलाकर अपना अजीर्ण दूर किया और प्रसन्न होकर अर्जुनको यह बहुत बड़ा रथ दिया। नौ बैलगाड़ियोंमें जितने अस्त्र-शस्त्र आ सकते हैं, उतने अस्त्र-शस्त्र इस रथमें पड़े रहते थे। यह सोनेसे मढ़ा हुआ और तेजोमय था। इसके पहिये बड़े ही दृढ़ एवं विशाल थे। इसकी ध्वजा बिजलीके समान चमकती थी। यह ध्वजा एक योजन (चारकोस) तक फहराया करती थी। इतनी लम्बी होनेपर भी इसमें न तो बोझ था, न यह कहीं रुकती थी और न कहीं वृक्ष आदिमें अटकती ही थी। इस ध्वजापर हनुमान्जी विराजमान थे। 'स्थितौ'-- कहनेका तात्पर्य है कि उस सुन्दर और तेजोमय रथपर साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण और उनके प्यारे भक्त अर्जुनके विराजमान होनेसे उस रथकी शोभा और तेज बहुत ज्यादा बढ़ गया था।'माधवः पाण्डवश्चैव'-- 'मा' नाम लक्ष्मीका है और 'धव' नाम पतिका है। अतः 'माधव' नाम लक्ष्मीपतिका है। यहाँ 'पाण्डव' नाम अर्जुनका है; क्योंकिं अर्जुन सभी पाण्डवोंमें मुख्य हैं 'पाण्डवानां धनञ्जयः'-- (गीता 10। 37)।अर्जुन 'नर'के और श्रीकृष्ण 'नारायण'के अवतार थे। महाभारतके प्रत्येक पर्वके आरम्भमें नर (अर्जुन) और नारायण (भगवान श्रीकृष्ण) को नमस्कार किया गया है-- 'नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।'-- इस दृष्टिसे पाण्डवसेनामें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन--ये दोनों मुख्य थे। सञ्जयने भी गीताके अन्तमें कहा है कि 'जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण और गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन रहेंगे, वहीँपर श्री, विजय, विभूति और अटल नीति रहेगी' (18। 78)। 'दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः'-- भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनके हाथोंमें जो शंख थे, वे तेजोमय और अलौकिक थे। उन शंखोंको उन्होंने बड़े जोरसे बजाया। यहाँ शङ्का हो सकती है कि कौरवपक्षमें मुख्य सेनापति पितामह भीष्म हैं, इसलिये उनका सबसे पहले शंख बजाना ठीक ही है परन्तु पाण्डव-सेनामें मुख्य सेनापति धृष्टद्युम्नके रहते हुए ही सारथी बने हुए भगवान् श्रीकृष्णने सबसे पहले शंख क्यों बजाया? इसका समाधान है कि भगवान् सारथि बनें चाहे महारथी बनें, उनकी मुख्यता कभी मिट ही नहीं सकती। वे जिस किसी भी पदपर रहें, सदा सबसे बड़े ही बने रहते हैं। कारण कि वे अच्युत हैं, कभी च्युत होते ही नहीं। पाण्डव-सेनामें भगवान् श्रीकृष्ण ही मुख्य थे और वे ही सबका संचालन करते थे। जब वे बाल्यावस्थामें थे उस समय भी नन्द, उपनन्द आदि उनकी बात मानते थे। तभी तो उन्होंने बालक श्रीकृष्णके कहनेसे परम्परासे चली आयी इन्द्र-पूजाको छोड़कर गोवर्धनकी पूजा करनी शुरू कर दी। तात्पर्य है कि भगवान् जिस किसी अवस्थामें, जिस किसी स्थानपर और जहाँ कहीँ भी रहते हैं, वहाँ वे मुख्य ही रहते हैं। इसलिये भगवान्ने पाण्डव-सेनामें सबसे पहले शंख बजाया। जो स्वयं छोटा होता है, वही ऊँचे स्थानपर नियुक्त होनेसे बड़ा माना जाता है। अतः जो ऊँचे स्थानके कारण अपनेको बड़ा मानता है, वह स्वयं वास्तवमें छोटा ही होता है। परंतु जो स्वयं बड़ा होता है, वह जहाँ भी रहता है, उसके कारण वह स्थान भी बड़ा माना जाता है। जैसे भगवान् यहाँ सारथि बने हैं, तो उनके कारण वह सारथिका स्थान (पद) भी ऊँचा हो गया।सम्बन्ध-- अब सञ्जय आगेके चार श्लोकोंमें पूर्वश्लोकका खुलासा करते हुए दूसरोंके शंखवादनका वर्णन करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।1.14।।इसके उपरान्त श्वेत अश्वों से युक्त भव्य रथ में बैठे हुये माधव (श्रीकृष्ण) और पाण्डुपुत्र अर्जुन ने भी अपने दिव्य शंख बजाये।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।1.14।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
Sri Anandgiri
।।1.14।।एवं दुर्योधनपक्षे प्रवृत्तिमालक्ष्य परिसरवर्तिनौ केशवार्जुनौ श्वेतैर्हयैरतिबलपराक्रमैर्युक्ते महत्यप्रधृष्ये रथे व्यवस्थितावप्राकृतौ शङ्खौ पूरितवन्तावित्याह ततः श्वेतैर्हयैरिति।
Sri Vallabhacharya
।।1.14।।ततस्तद्धोषं निशम्य भगवान् पार्थसारथिरर्जुनश्च त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते मध्ये रणे महति रथे स्थितौ विश्वं कम्पयन्तौ स्वशङ्खौ प्रदध्मतुः।
Sridhara Swami
।।1.14।। ततः पाण्डवसैन्ये प्रवृत्तं युद्धोत्सवमाह तत इति पञ्चभिः। ततः कौरवसैन्यवाद्यकोलाहलानन्तरं स्यन्दने रथे स्थितौ सन्तौ कृष्णार्जुनौ दिव्यौ शङ्खौ प्रकर्षेण दध्मतुर्वादयामासतुः।